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-सूत्र ४३६-४३७
. . .तृतीय महावत और उसकी पांच भावना
अरित्राचार
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...से अनुपविसित्ता गाम वा जाब-रायाणि .या णेश सयं . साधु. ग्राम. यावद--राजधानी में प्रविष्ट होकर स्वयं विना
अविष्णं गेण्हेज्जा, कामेणं अविणं गेहावेज्जा, पंवऽष्णं दिये हुए (किसी भी) पदार्थ को.ग्रहण न करे, न. दूसरों से ग्रहण अविण गेण्हत पि समगुजाणेज्जा।
गए और द:
हा अनुरोदन समर्थन करे । -आ. सु. २, अ.५, उ. १, गु. ६०७ अविनादाण महषयस्स पंच भावणाओ
तृतीय महायत और उसकी पांच भावना -- . ४३७. महावर तवं मते ! महस्वयं पच्यणामि सर्व अविण्णा- ४३७. "भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महावत स्वीकार . . काणं।
करता है, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्या
ख्यान (त्याग) करता हूँ। वह इस प्रकारसे मामे वा नगरे वा अरणे वा अल्प वा बढ़ वर अणुं वा वह (माया पदार्थ) चाहे गांव में हो, नगर में हो, अरण्य में (धूल वा बिसमत या अवित्तमंत था गेष सयं अविणगेण्हेज्जा, हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थल' (छोटा हो या बड़ा),
करणं अविष्णं गेहावेजा अण्णे पि अविण गेत सचेतन हो, या अचेतन; उसे उसके स्वामी के विभा दिये न तो ण समणुजाणंजा जावज्जीवाए तिविहं तिबिहेगं मगसा स्वयं ग्रहण करूंगा, न दूसरे से (बिना दिये पदार्थ.) ग्रहण करवयसा कामता तप्त भंते ! पविकमामि-जाव-शोसिरामि। वाऊँगा, और न ही अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन-समर्थन
करूंगा, मावज्जीवन तक, तीन करणों से. तथा मन-वचन-काया, इन तीन योगों से यह प्रतिज्ञा करता हूं। साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ,-यावद-अपनी
आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ। तस्सिमामी पंच मावणाओ भवति ।।
उस तीसरे महायत की ये पांच भावनाएँ है-- १. तस्थिमा पढमा भावणा-अणुवी मि मितोगहजाई से (१) उन पांचों में से प्रथम भावना इस प्रकार है-जो निगंथे णो अणणवीयि मितोग्गहजाई से निरपंधे । साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता
है, वह निर्धन्य है, किन्तु विना विचार किये परिमित अवग्रह की
याचना करने वाला नहीं । केवली व्या-अणणवीयि मिलोगहजाई से णिग्गये अविणं . केबली भगवान् ने कहा है --जो बिना विचार किये मितागेण्हेक्जा। अणुषीयि मिसोग्गहजाई से निग्गंधे, मो अणणु- बग्रह की याचना करता है. वह निग्रंन्य अदत्त ग्रहण करता है। बीयि मितोम्गहजाई ति पढमा प्रावणा।
अतः तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करने बाला साधु निम्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचारे किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला। इस प्रकार यह प्रथम
भावना है.।. २. अहावरा दोच्चा भावणा-अणुण्णबिय पाग मोयगं.भोई (२) इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है-गुरुजनों की से णिमाथे, जो अणणुग्णविय पाण-मायणभोई। . अनुज्ञा लेकर आहार-पानी आदि सेवन करने वाला निम्रन्थ होता
है, अनुजा लिये बिना बाहार-पानी आदि का उपभोग करने चाला नहीं।
.. . . . केवसी यूना-अणगुण्णवीयि पाण-भोयणभोई से गिरगये केबली भगवान् ने कहा है जो निम्रन्थ गुरु आदि की अविष्णं मुंबेज्जा । तम्हा अशुष्णवीपि पाण-भोयण भोई से अनुज्ञा प्राप्त किये बिना पान-भोजनादि का उपभोग करता है, णिगंथे, णो अपणुमत्रिय पाग-भोयणभो ति दोच्चा वह अदसादान का सेवन करता है। इसलिए जो साधक गुरु भाषणा।
आदि की अनुमा प्राप्त करके आहार-पानी आदि का उपभोग करता है, वह निर्गन्य' कहलाता है। अनुशा ग्रहण किये बिना आहार-पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं। यह दूसरी भावना है।
साधक गुरु
न्य' कहलातार पानी