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________________ ३०० दरगानुयोग तृतीय महावत स्वरूप एवं आराधना ततीय महाव्रत स्वरूप एवं आराधना .. ततियमहत्वयस्स आराहणा पइण्णा . तृतीय महाव्रत के आराधन की प्रतिज्ञा ४३६, प्रहावरे तम्चे भंते ! महावए अदिन्नादाणाओ वेरमण। ४३६. भन्ते! इसके पश्चात् तीसरे महाव्रत में अदत्तादान की विरति होती है। सव्वं मते ! अविनावाण पचवखामि ?1 भन्ते ! मैं सर्व अदत्तादाम का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे से मामे था, नगरे वा, रमे या, अस्पं वा, बहु या, अथा , कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में (कहीं भी) अल्प या बहुत, यूलं वा, वित्तमंतं या, अचित्तमतं वा। सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त (सजीव) हो या अचित्त (निर्जीव)। से य अविष्णादाणे घउम्विहे पण्णते, तं जहा यह अदत्तादाम' चार प्रकार का है जैसे-(१) द्रग्य से, १. दावओ, २. खेसओ, ३. कालओ, ४. भावो । (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से। . . . . १. घओ अस्पं या बहु वा अण वा धूतं वा चित्तमंत वा, (१) दन्य से--अल्प या बद्दुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्तमंतं शा अचित्त। २. खेतओ गामे वा, नयरे या, अरणे वर, (२) क्षेत्र से -गांव में, नगर में या अरण्य में, ३. कालभो बिया वा राओ वा (३) काल से दिन में वा रात्रि में, ४. भावओ अपग्ध वा महाच वा। (४) भाव से अल्प मूल्य वाली या बहुमूल्य वाली। नेव सयं अचिन्नं गेहेज्जा, नवन्नेहिं अबिन्नं गेहावेजा, किसी भी अदत-वस्तु को मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों अविम्म मेण्हते वि अन्ने न समगुजा गेउना, जावज्जीवाए से अदत वस्तु का ग्रहण नहीं कराऊँगा और अदत्त-वस्तु ग्रहण सिविहं तिविहेणं मणं बायाए का न करेमि न फारमि करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, करत पि अन्न न समणुजामि । तीन करण तीन योम से--मन से, वचन से, काया सेन करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तम्स भंते ! पहिषकमामि निवामि गरिहामि अप्पाणं भन्ते | मैं अतीत के अदत्तादान से निवृत्त होता हूँ, उसकी वोसिरामि । निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। सच्चे भो ! महस्वए उबट्टिओमि सस्वामओ अविनादाणाओ भन्ते ! मैं तीसरे महावत में उपस्थित हुआ। इसमें सर्व वेरमणं । -दस. अ ४, सु. १३ अदत्तादान की विरति होती है। "समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुसे अपसू परवत- मुनि दीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है-"भव में भोई पावं कम्म णो करिस्सामि" ति समुट्ठाए "सभ्य भंते ! श्रमण बन जाऊँगा। अनगार, अकिंचन (अपरिग्रही) अपत्र अविण्णावाणं पसचखामि।" (पुत्रादि सम्बन्धों से मुक्त), अपशु (द्विपद-वतुष्पद आदि पशुओं के स्वामित्व से मुक्त) एवं परदनभोजी (दूसरे गृहस्थ द्वारा प्रदत्त भिक्षा में प्राप्त आहारादि का सेवन करने वाला) होकर मैं अब कोई भी हिमादि पापकर्म नहीं करूंगा।" इस प्रकार संयम पालन के लिए उस्थित-समुद्यत होकर कहता है-"भन्ते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है।" १ तरह गमाइस्स, अदत्तस्स विवजणं । अणवाजेसणिज्जस्स, गेहना अघि दुक्करं ॥ . चित्तमतमचित्तं या अप्पं वा जद वा बहुं । दंतसोहणमेतं पि ओगह सि अजाइना ।। --उत्त. अ.१६, गा, २८ -दम. अ. १, गा १३
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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