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चरणांनुयोग
"रत अनुशात सेवर के जातक
सूत्र ४३६-४१
अपं च मह च अणुच पुलगे वा न पति उग्गहमि घास-लकड़ी-कंकर आदि वस्तुएँ मूल्यवान या विषेष मूल्य की हों, अक्षिणमि गिहिउँ।
घोड़ी हो या बहुत ही,"फिर भी साधु उन वस्तुओं को उसके
मालिक की आज्ञा पाये बिना न ने। जे हणि हगि उगहं. अणुनषिय गेण्हियव्यं ।
प्रतिदिन अवयह पाकर (मालिक की आजा लेकर) उन-उन
कल्प्य वस्तुओं को ही साधु को लेना उचित है। बज्जेमकवो सस्वकाल अनियस-घरपवेसो, अचियत-भत्तपाणं, साघु.से. अनीति करने वाले के घर में प्रवेश या ऐसे किसी अचियत्त-पीट - फलग-सेवजा-संथारग-वस्थ-पत्त-कंबल-बंग- अप्रीति वाले के घर का भोजन पानादि साधु को लेना अनुचित रबहरणानसेन्ज-बोलपट्टग-मुहपोत्तियं-पायपुंछणाइ-मायण- है एवं अप्रतीतिकारी के यहाँ से पाट, पटे, शम्बा, संस्तारक, भोहिउदकरण।
कपड़े, बर्तन, कम्बल डन्डा रजोहरण. तख्त. चोलपट्टक, मुख पर बांधने की मुख वस्त्रिका, पादपोंछन, भोजन, वस्त्रादि उप
करण भी न लें। परपरिवाओ परस्सदोसो, परबचएसेण हइ परस्त नरे अपवाद और के दोषों को) देखकर या किसी नासेइजच मुकयं दाणस य अंतराइयं, पाणविपणासो, दूसरे के नाम से किसी प्रकार की वस्तु न लें, इस रीति के दोष पेसुन्न चच मछरितं । . .
साधु के लिए त्याज्य हैं । इस भांति दूसरों के द्वारा किया गया उपकार का नाश करना. इस बंग के कार्य, दान में विघ्न पड़े करने वाले कार्य , दान का विनाश दूसरों की खोटी खरी चुगली
चाड़ी तथा मात्सर्व ये सब दोष त्याग करने योग्य है। जे वियपीढ-फलंग-सेन्जा-संथारग-यस्थ-पाय-बल-मुह- जो साधु तख्त, पौकी, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, पोत्तिय-पायछणादि-मायण-मंडोपाहि-उपकरण असंविभागी, रमोहरपर छोटी चौकी, बोलबट्टक, मुंह पर बांधने की महपसी, असंगहई।
पर पोंछने का कपड़ा आदि तथा माजन भन्ड इत्यादि उपकरण संविभाग न कर दे, ऐमें उपकरण दोषमुक्त-सूझते मिले तो भी
उन्हें लेने की रुचि न करे। तबतेणे य, वयोणे य, स्वतेणे य, आयारे चैव भावतेणे थ। जो तप का चोर हो, बांचा का चोर हो, रूप का चौर हो,
__ आचार धर्म का चोर हो, भाव का चोर हो।। सहकरे संभकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे, (रात्रि में) प्रगाढ़-ऊँचे स्वर में बोलता हो, गच्छ में फूट सया अपमाणभोई, सततं अगुबसवेरे य, निसरोसी, से डालता हो, कलह करता हो, वैर बढ़ाता हो, विकथा-बकवास तारिसए नागहए क्यमिणं ।
करता हो. नित्त में असमाधि उत्पन्न करता हो, सदा प्रमाण रहित ___–प. सु. २, अ. ३, सु. २-७ भोजन करता हो, निरन्तर वैर विरोध को टिकाए रखता हो,
नित्य नया रोष' मा अप्रसन्नता रखता हो, ऐसी प्रकृति का साधु
तीसरे.प्रत का आराधन नहीं कर सकता है। . . बत्तमणुष्णाय संवरस्स आराहगा
दत्त अनुशात संवर के आराधक-- ४४०.५०-अह रिसए पुगाई धाराहए वामगं?
१४०. प्र.-यदि पूर्वोक्त प्रकार के मनुष्य इस व्रत की आरा धना नहीं कर सकते) तो फिर किस प्रकार के मनुष्य इस प्रत के
आराधक हो सकते हैं ? उ.-जे से उबहि-भत्त-पाण-संगहण-दाग-फुसले ।
उ०-इस अस्तेय व्रत का आराधक यही पुरुष हो सकता है जो-वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार-पानी आदि का संग्रहण और विभाग करने में कुशल हो।