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________________ परिशिष्ट १ ^^^ (३) एवं सम्मावि, सम्मागातिथि P (४) एगे जो सम्मामेति णो सम्माणावेति । पृष्ठ १६५ अणउत्थिवानं दंसणपण्णवणा पृष्ठ १७८ सूत्र २७४. ठाणं. अ. ४, उ. १. अन्य affesों को दर्शन प्रज्ञामन २२. (मेलि आधारगोयरे यो सुते इह आरंभट्टी, अणुवयमाणा 'हणपाणे', दातमाणा, हणतो यावि समगुजाण माणा, सु. २५६, ६-८ जाग्रहस पवई सुतियाकडे विवा कल्लाणे ति वा पाए सि वा साहू ति का असाहू ति बा सिद्धीति वा सिद्धी ति वा रिति वा निरएवा जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवे माणा । एत्य वि जाणह अकहा । -आ. सु. १, . उ. १, सु. २०० ( ग ) एवं सिणो सुक्खाते जो सुषण्णते धम्मे भवति । -आ. सु. १, अ. प उ १, सु. २०२ (क) जेके लोन अतिरिमाया अम्मेण पुट्ठा मादिति । आरंभसता गहिया य लोए, धम्मं ण जागति विमुखहे ॥६॥ पुढो य छंदा छह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुडो य वायं । बालरस पकुश्व बेहं, अदुवा अप्रिमादति । - आ. सु. १ . उ. १ सु. २०० (क) ग्रहण करते हैं । पृष्ठ २०५ सूत्र ३०४ (ख) तभो क्या पण्णत्ता, रमसंजयस्स ||७|| - सूय. मु. १, अ. १० . १६-१७ तं जहा -- हमे वए मज्झिमे बए पछि ए तिहिं वहिं माया केवलेणं संषरेणं मंबरेज्जा सं जहा पढने थए, मज्झिमे ए, पच्छिमे वए । - ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६३ (३) कुछ पुरुष सम्मान करते भी है और करवाते भी हैं, (४) कुछ पुरुष न सम्मान करते हैं और न करवाते हैं । पृष्ठ १६५ अन्यतीयिकों की दर्शन प्रज्ञापना २६१. (मनुष्यलोक में कई साधकों को भावारीवर सुपरिचित नहीं होता 1 वे आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं । ये इस प्रकार कथन करते हैं कि- "प्राणियों का वध करो" अथवा स्वयं यह करते हैं और प्राणियों का वध करने वालों का अनुमोदन करते हैं । अथवा इस प्रकार का बाचरण करने वाले वे अदत्त वा (वे इस प्रकार पण करते हैं--) दुष्कृत है। कल्याण है, पाप है । साधु है, बसा है। तिथि है। गर्मि नई है? (art नरक है, नरक नहीं है। इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनकी पूर्वोक्त प्ररूपणा में नहीं है, ऐसा जानो । कोई भी हेतु इस प्रकार उनका धर्म न तो युक्ति-संगत होता है और न ही सुप्ररूपित होता है । पृष्ठ १७८ सूत्र २७४. इस लोक में जो आत्मा को क्रियारहित मानते हैं और दूसरे के पूछने पर मोक्ष का अस्तित्व बतलाते हैं, वे लोग आरम्भ में आसक्त और विषय-भोगों में गृद्ध हैं। वे मोक्ष के कारणरूप धर्म को नहीं जानते । जगत में मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इस कारण कोई क्रियावाद को मानता है तो कोई उससे विपरीत अक्रियावाद को तथा कोई ताजे जन्मे हुए बच्चे के शरीर को काटकर अपना सुख मानते हैं, वस्तुतः ऐसे असंयमी लोग दूसरों के साथ बंद हो बढ़ाते हैं । पृष्ठ २०५ सूत्र ३०४ ( ख ) तीन प्रकार के व्य कहे गये हैं, पत्राप्रथम वय, मध्यम वय और अन्तिम वय । दोनों ही क्यों में वारमा सम्पूर्ण होता है । यथा प्रथम वय, मध्यम वय और अन्तिम वयं । के द्वारा संवृत
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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