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________________ सूत्र २४६-२४७ द्वितीय पंच महामूतवाषी को भक्षा का निरसन अर्शनाधार १५ पुण्यामेव सेसि जायं भवति-समणा भविस्साओ अणगारा इन शरीरात्मवादियों ने पहले तो यह प्रतिज्ञा की होती है अकिंधणा असा अपस परवत्समोइणो भिक्खणी पावं कम्मं को कि "हम अनगार (घर-बार के त्यागी), अकिंचन (द्रव्यादिकरिस्मामो समुहाए से अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइ रहित), अपुत्र (पुत्रादि के त्यागी), अपशु (पशु आदि के स्वामित्व यति अस्ने वि भावियावन्ति अन्नं पि आतियतं समजाणंति, से रहित), परदनभोजी (दुसरों के द्वारा दिये गए भिक्षाग्न पर निर्वाह करने वाले) भिक्षु एवं श्रमण (शम सम एवं श्रम-तप की साधना करने वाले), बनेगे, अब हम पाप कर्म (सावध कार्य) नहीं करेंगे," ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वे स्वयं दीक्षा ग्रहण करके (प्रवजित होकर) भी पाप कर्मों (सानच आरम्भसमारम्भादि कार्यो) से विरत (निवृत्त) नहीं होते, वे स्वयं परिग्रह को ग्रहण (स्वीकार) करते हैं, दूसरे से ग्रहण कराते हैं और परिग्रह ग्रहण करने बाले का अनुमोदन करते (अच्छा समझते) हैं। एवामेव से हत्यिकाममोगेहि मुछिया गिता गद्विता अज्मोष- इसीप्रकार के स्त्री तथा अन्य कामभोगों में आसक्त यहा सुद्धा रागयोसप्ता, ते को अप्पागं समुच्छेति, नो परं (मूच्छित), गृख, उनमें अत्यधिक इच्छा और लालसा से युक्त, समुच्छेति, नो अण्णाई राणाई भूताई जीवाइं सत्ताई लुब्ध (लोभी), राग-द्वेष के वशीभूत एवं आत्तं (चिन्तातुर) रहते समुन्छे देति. हैं। वे न तो अपनी आत्मा को संसार से या कर्म-पाश (बन्धन) से मुक्त कर पाते हैं, न वे दूसरों को मुक्त कर सकते हैं, और न अन्य प्राणियों. भूतों, जीवों और मत्वों को मुक्त कर सकते हैं। महोणा पुब्बसंजोग, आयरियं भरगं असंपत्ता, इति ते वे (उक्त शरीरात्मवादी प्रथम असफल पुरुष के समान) गोहत्वाए गो पाराए, भतरा कामभोगेतु विसग्णा। अपने स्त्री-पुरुष, धन-धान्य आदि पूर्वसंयोग गृहावास या शाति जनवास) से प्रचण्ट (प्रहीन) हो चुके हैं, और आर्यमार्ग (सम्यग्दर्शनादियुक्त मोक्षमार्ग) को नहीं पा सके हैं। अतः वे न तो इस लोक के होते हैं, और न ही परलोक के होते हैं (किन्तु उभयनोक के सदनुष्टान से भ्रष्ट होकर (बीच में कामभोगों (के कीचड़) में आसक्त हो (फैस) जाते हैं । इति पढमे पुरिसज्जाते तम्जीव-तस्सरीरिए आहिते। इस प्रकार प्रथम पुरुष तज्जीय-तच्छरीरवादी कहा गया है । -. सु. २, अ. १, सु. ६५३ वि.यं पंचमहम्भूयवाइए सहहणणि रसणं- द्वितीय पंच महाभूतवादी की श्रद्धा का निरसन२४७. ब्रहावरे शेच्चे पुरिसम्जाते पंचमहम्भूतिए ति आहिज्जति । २४७. पूर्वोक्त प्रथम पुरुष से भिन्न दूसरा पुरुष पंचमहाभूतिक कहलाता है। इह खलु पाईगं वा-जार-संगतीश मणुस्सा भवति अणु- इस मनुष्यलोक की पूर्व-यावत्-उत्तरदिशा में मनुष्य पुग्वेणं सोपं उबवण्णा, तं जहा—ारिया वैगे-जाव-दुरूवा रहते हैं। वे क्रमशः नाना रूपों में मनुष्य लोक में उत्पन्न होते हैं, बेगे । तेसि च णं महं एगे राया भवती महया एवं वेब गिरव- जैसे कि---कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य । कोई-यावर--- सेसं-आव-सेवावतिपुत्ता। कुरूप आदि होते हैं। उन मनुष्यों में से कोई एक महान् पुरुष राजा होता है। वह राजा पूर्वसूत्रोक्त विशेषणों-महान हिमवान आदि से युक्त होता है और उसकी राजपरिषद्-यावत् -सेनापति आदि से युक्त होती है। सि च गं एगतीए सही भवति, कामं तं समणा 4 माहगा उन सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है । वे श्रमण व महारिंसु गमगाए । तस्याण्णवरेणं धम्मेणं परतारो वर- और माहन उसके पास जाने का निश्चय करते हैं। वे किसी एक मिमेयं धम्मेणं पन्नवहस्सामो, धर्म की शिक्षा देने वाले अन्यतीयिक श्रमण और माहन (बाह्मण) राजा आदि से कहते हैं-"हम आपको उत्तम धर्म की शिक्षा देंगे।"
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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