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________________ १५२] वरणानुयोग प्रथम सज्जी-बततशरीरबादी की श्रद्धा का निरसन सूत्र २४६ एवं असतो असंविज्जमर्माण । इसलिए आत्मा शरीर सेवा उपलब्ध नहीं होती, यही असितं सुयक्खातं भवति तं जहा-"अन्नो जोशे अन्नं सरीर" बात युक्तियुक्त है। इस प्रकार (विविध युक्तियों से आत्मा का तम्हात मिछा। अभाव सिद्ध होने पर भी) जो पृथगात्मवादी (स्वदर्शनानुरागयश) -सूय. सु.२, अ. १, मु. ६४५-६५.० बार-बार प्रतिपादन करते हैं, कि आत्मा अलग है. शरीर अलग है, पूर्वोक्त कारणों से उनका कथन मिथ्या है। से हता इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा को न मानने वाले तज्जीव तच्छरीरवादी लोकायतिक आदि स्वयं जीवों का नि:संकोच) हनन करते हैं, तथा (दूसरों को भी उपदेश देते हैं।हणह खणह छणाह रहह पयह अालुपह विलुपह सहसक्कारेह इन जीवों को मारो, यह पृथ्वी खोद डालो, यह वनस्पति विपरामुसह, काटो, इसे जला दो, इसे पकाओ, इन्हें लूट लो या इनका हरण कर लो । इन्हें काट दो या नष्ट कर दो, बिना सोचे विचारे सहसा वध कर डालो, इन्हें पीड़ित (हरान) करो, इत्यादि । एत्ताव साव जीये, णस्थि परलोए, इतना (शरीरमात्र) ही जीव है, (परलोकगाभी कोई जीव नहीं होने से) परलोक नहीं है।" (इसलिए यथेष्ट सुख भोग करों)। है जो एवं विपरिवेति, तं जहा-किरिया वा अकिरिया वे शरीरात्मवादी आगे कहीं जाने वाली बातों को नहीं इवा, सुक्कडे ति वा दुक्कडे ति वा, कल्लाणे ति वा पाए मानले जैसे कि ----सरिक्रया या असत्किया, सुकृत या दुष्कृत, ति बा, साहू ति वा असाहू ति या, सिद्धि ति वा असिद्धि कल्याण (पुण्य) या पाप, भला या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरक ति वा, निरए ति वा अनिरए ति वा। या स्वर्ग, आदि । एवं ते विरुवस्वेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूषाई काममोगाई इस प्रकार वै शरीरात्मवादी अनेक प्रकार के कर्मसमारम्भ सभारंपति भोषणाए। करके विविध प्रकार के काम-भोगों का सेवन (उपभोग) करते हैं -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६५१ अथवा विषयों का उपभोग करने के लिए विविध प्रकार के दुष्कृत्य करते हैं। एवं पेगे पागम्भिया निक्षम्म मामगं धम्म पण्णति । इस प्रकार शरीर से भिन्न आरमा न मानने की पृष्टता करने बाले कोई नास्तिक अपने मतानुसार प्रत्रज्या धारण करके "मेरा ही धर्म सत्य है" ऐसी प्ररूपणा करते हैं। त सहहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा इस शरीरात्मवाद में श्रद्धा रखते हुए, उम पर प्रतीति करते हुए. उसमें चि रखते हुए कोई राजा आदि उस शरीरात्मवादी से कहते है-- साधु सुयखाते समणे ति या माहणे ति बा, काम खतु हे घमण या ब्राह्मण ! आपने हमें यह तज्जीव-तच्छरीरबाद आउसो! तुम पृपयामो, रूप उत्तम धर्म बताकर बहुत ही अच्छा किया, हे आयुष्मन् ! सं सहा- असणेण वा पाणेग वा खाइमेण वा साइमेण वा (आपने हमारा उद्धार कर दिया) अतः हम आपकी पूजा सत्कार बत्येण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछषण था, सम्मान) करते हैं, जैसे कि हम अशन पान, खाद्य, स्वाध अथवा वस्त, पात्र, कम्बल अथवा पाद-पोंछन आदि के द्वारा आपका सत्कार-सम्मान करते हैं। तत्गे पूयणाए समादिप्सु तत्येगे पूयणाए निगामहंसु । यों कहते हुए कई राजा आदि उनकी पूजा में प्रवृत्त होते हैं, --सूव. सु. २, अ. १, सु. ६५२ अथवा वे शरीरात्मवादी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा में प्रवृत्त हो जाते हैं, और उन स्वमतस्वीकृत राजा आदि को अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए अपने मत-सिद्धान्त में दृढ़ (पक्के या कट्टर) कर
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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