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सूत्र ४२
धर्म के आराधक
धर्म-प्रज्ञापना
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अहेगे धम्ममवाय आदाणप्पमितिसुपणिहिए नरे अपलीयमाणे कुछ साधक-धर्म स्वीकार करके प्रारम्भ से ही मायाजाल में बसे सम्बंगेहि परिणाय ।
नहीं फंसते हुए दृढ़तापूर्वक सर्व प्रतिज्ञा का पालन करते हैं । -आ. सु. १, अ. ६, उ. २, सु. १८४ तं मेहाबी जाणेजा धम्म ।
मेधावी पुरुष सर्वप्रचण्त धर्म को जाने । -आ. सु. १. अ. ६, उ. ४, सु. १६१ बुबा धम्मस्स पारगा।
बुद्ध पुरुष धर्म के पारंगत होते हैं। -आ. सु. १, अ. ८. उ. ८, सु. २३० से एय घरंति आहिर, नातेणं महता महेसिणा ।
महान् महर्षि शातपुत्र के द्वारा कहे हुए इस धर्म का जो ते उद्विप से समुट्टिया, अनोग्नं सारेति धम्मओ ।। आचरण करते हैं वे ही उत्थित हैं, वे ही समुत्थित है और वे ही
-सू. सु. १, अ, २, उ. २, गा. २६ एक दूसरे को धर्म में प्रवृत्त करते हैं। णो काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए। संयत साधक विकथा न करे, प्रश्न-फल न कहे और ममत्व नगा धम्म पार, करविवि कालिकाप न करे किन्तु लोकोत्तर धर्म का अनुष्ठान करे।
--सू. सु. १, अ. २, उ. २, गा. २८ छनच पसंसं णो करे, न य उपकोस-पगास-माहणे ।
माहन (अहिंसाधर्मी साधु) छन्न (माया) और पसंस (लोभ) तेसि मुधिवेगमाहिते, पणया जेहिं सुज्मोसित धुयं ॥ न करे, और न ही उक्कोस (मान) और पगास (क्रोध) करे ।
जिन्होंने धुत (कर्मों के नाशक संयम) का अच्छी तरह सेवन (अभ्यास) किया है, उन्हीं का विवेक (उत्कृष्ट विवेक) प्रसिद्ध
हैं, वे ही अनुत्तर धर्म के प्रति प्रणत (समर्पित) हैं। अणिहे साहिए सुसंबडे, धम्मट्ठी उपहाणवीरिए। यह अनुतर-धर्म-साधक किसी भी वस्तु की स्पृहा या आसक्ति विहरेज्ज समाहितिविए, आयहिय खु बुहेण लाद॥ न करे, जान दर्शन-चरित्र की वृद्धि करने वाले हितावह कार्य -सू. सु. १, अ. २, ज, २, गा. २६-३२ करे, इन्द्रिय और मन को गुप्त सुरक्षित रखे, धर्मार्थी तपस्या में
पराक्रमी बने, इन्द्रियों को समहितवशवी रखे इस प्रकार संयम में विचरण करे, क्योंकि आत्महित स्व-कल्याण दुःख से प्राप्त
होता है। जेहि काले परपकतं, न पच्छा परितप्पड़ ।
धर्मोपार्जन काल में जिन पुरुषों ने धर्मापार्जन किया है वे ते धीरा बंधणुम्मुषका, नावखेति जोवियं ।। पश्चात्ताप नहीं करते हैं । बंधन से छूटे हुए वे धीर पुरुष असंयमी
-सू. सु. १, अ. ३, उ. ४, गा. १५ जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिविमुद्धरे ।
मेधावी साधक अपनी आसक्ति को छोड़े और सर्व धर्मों से मारियं जबसंपज्जे, सध्यधाममकोश्यिं ॥
अदुपित आर्य धर्म को स्वीकार करे । सह संमइए पश्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा।
स्व सम्मति से धर्म के स्वरूप को और धर्म के सार को सुनसमुट्ठिए अणगारे, पखाए य पावए ।
कर जो अनगार साधक आत्म-उत्थान के लिए तैयार होता है बह -सू. सु. १, अ. ८, गा. १३-१४ पापो का प्रत्याख्यान कर देता है। प०--जे मे भंते ! उग्गा, भोगा, राइना, खापा, नाया, -हे भगवन् ! जो उपकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, कोरच्या एएणं अस्सि धम्मे ओमाहति ?
इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कौरव्यकुल के क्षत्रिय हैं, क्या वे सब
इस धर्म में प्रवेश करते हैं ? अस्सि धम्मे ओगाह ति अस्सि अविह कम्मरयम प्रवेश करके आठ प्रकार के कर्मरूप रजमल को धोते हैं? पवाति? अविहं कम्मरयमल पवाहिता तो पच्छा सिमंति, आठ प्रकार के कर्मरज मल को धोकर पश्चात् वे सिद्ध, बुद्ध, बुनमंति; मुस्चंति, परिणिवायति, सम्वदुषाणमंत मुक्त एवं परिनिवृत्त होकर सब दुःखों का अन्त करते हैं ? कति?