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परणानुयोग
धर्म का माहात्म्य
मूत्र४१-४२
विगिच कम्मुणो हेउ, जसं संचिणु सरितए।
कर्म के हेतु को दूर कर क्षमा से यश (संयम) का संचय कर। पाढवं सरीरं हिया, उट्ट पक्कमई विसं । ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्व दिशा (स्वर्ग
या मोक्ष) को प्राप्त होता है। विसालिसहि सोलेहि. जक्या उसर - उत्तरा।
विविध प्रकार के शोलों की आराधना करके जो देव कल्पों महासुक्का व रिप्पन्ता, मनन्ता अपुष्णरुचवं ।। व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे उत्तरो
तर महाशुक्ल (चन्द्र सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। "स्वर्ग से
पुनः च्यवन नहीं होता" ऐसा मानते हैं। अम्पिया देवकामाणे, कामड्व - विउविणो।
वे देवों भोगों के लिए अपने आप अर्पित किए हुए रहते हैं । उड्ढे कप्पेसु चिट्ठन्ति, पुवा वाससश जूलू इच्छानुसार रूप करने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्व-वर्षों तक
असंख्य काल तक वहाँ रहते हैं । तस्थ ठिसचा जहाठाणं, जक्खा आजपाए चुपा ।
वे देव उन कम्पों में अपनी शील की आराधना के अनुरूप उम्ति माणुसं जोणि, से सगे भिजापइ ।। स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहाँ से च्युत होते हैं, फिर
मनुष्य-योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ दस अंगों वाली भोग
सामग्री से युक्त होते हैं। देसं वत्थु हिरणं, पसवो दास - पोस।
क्षेष, वास्तु, स्वर्ण पशु और दास पौरुषेय --जहाँ ये चार खत्तारि काम-खन्धा णि, तत्व से उववज्जई। काम-स्कन्ध होते हैं उन कुलों में वे उत्पन्न होते हैं। मित्तवं नाय होइ, उपधागोए य वणवं।
वे मित्रवान्, कातिमान्, उच्च गोत्र वाले, वर्णवान्, निरोग, अध्यायके महापन्ने, मभिजाए जसोबले ।। महाप्रज्ञ, अभिजात, यशस्वी और बलवान् होते हैं । भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्परक्ये अहाजयं ।
जीवन भर अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर, पूर्व-जाम में पुवं विसुद्ध- सम्मे, केवलं बोहि युग्मिया । विशुद्ध-सद्धी (निदान रहित तप करने वाले) होने के कारण वे
विशुद्ध बोधि का अनुभव करते हैं। धउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजम परिवग्जिमा।
वे उक्त चार अंगों को दुर्लभ मानकर संयम को स्वीकार सवसा धुप कम्मसे, सिद्धे हवा सासए॥ करते हैं। फिर तपस्या से कर्म के सब अंशों को धुनकर शाश्वत
-उत्त, अ. ३, गा. १२-२० सिद्ध हो जाते हैं। धम्माराम घरे मियू, घिदम धम्म - वारही।
हे ब्रह्मचर्यनिष्ठ ! दान्त धैर्यवान् धर्मरूप आराम में रत धम्मारामे रए बंते, संप्रधेर समाहिए। मिशु ! तू धर्मरूप रथ का सारथी बनकर धर्मरूप आराम में
-उत्त, अ.१६, गा.१७ विचरण कर। एस धम्मे धुवे णिच्चे, सासए जिणदेसिए।
यह निर्गन्धकपित धर्म ध्रव है, नित्य है, शाश्वत हैं। इससे सिद्धा सिजति चाणेण, सिमिति तहावरे ॥ अनेक आत्माएँ अतीत में सिद्ध हुई है, वर्तमान में सिद्ध हो रही है
-उत्त. अ. १६, गा. १६ और भविष्य में सिद्ध होगी। धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो सकी।
अहिंसा, संयम और लपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल हैं। ऐसे धर्म देवा वि तं मर्मसंति, जस्स धम्मे सपा मणो ॥ में जिसका मन रमा रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
-दस.अ. १, गा. धम्मस्स आराहणा
धर्म के आराधक४२. तं माइत्तु न मिहे, न निक्विवे
४२. साधक धर्म का यथार्थं स्वरूप जानकर और स्वीकार कर न जागिसु धम्मं जहा तहा......
माया करे और न धर्म को छोड़े। --आ. सु. १, अ. ४, उ. १, सु. १३३