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________________ ३६] चरणानुयोग धर्म के अनधिकारी सूत्र ४२-४४ . उ०-हंता गोयमा ! जे हमे उम्गा, भोगा, तं चेव- अंत उ० - हे गौतम ! जो उग्रकुल आदि के क्षत्रिय है, वे-यावत् करेंति । अस्यगइया अभयरेसु देवलोएसु बेषताए उब- सब दुःषों का अन्त करते है और कुछ एक क्षत्रिय देने लोकों में वत्तारो भवंति। -वि. म. २०, ३.८, सु. १६ देवरूप में उत्पन्न होते हैं। धम्माणहिगादियो... पर्म के अनधिकारी४३. "न इत्थं तवो वा वमो णियमो वा दिस्सति" संपुण्णं बाले ४३, मोगमय जीवन का इच्छुक सर्वघा बाल एवं मूढ़ मानव इस मीबिउकामे लालप्पमाणे मूढे विपरियासमुवेति । प्रकार प्रलाप करता है कि---"इस जगत में तप, इन्द्रिय दमन -~-आ. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७७ तथा नियम किसी काम के नहीं हैं।" जरा-मच्यवसोवणीसे मरे सततं मूझे धम्म नामिजाणति । जरा और मृत्यु के आक्रमण से त्रस्त एवं मोह से मूढ बना -आ.सु. १, अ. ३, ३. १, सु. १०८ हुआ मानव कदापि धर्मज्ञ नहीं हो सकता है। अनुत्तरधम्मस्स आराहणा अनुत्तर धर्म की आराधना-. ४४. उसरमणुयाण माहिया, गामधम्मा इति मे अणुस्सुतं । ४४. मैंने (सुधर्मा स्वामी ने) परम्परा से यह सुना है कि ग्रामजंसी विरता समुदिता, कासक्स्स अणुधम्मवारिको॥ धर्म (पांचों इन्द्रियों के शब्दादि विषय अथवा मैथुन सेवन) इस लोक में मनुष्यों के लिए उत्तर (दुर्जेय) कहे गये हैं । जिनसे विरत (निवृत) तथा संयम (संयमानुष्ठान) में उस्थित (उचत) पुरुष ही काश्यपगोत्रीय भगवान ऋषभदेव जयवा भगवान महावीर स्वामी के धर्मानुयायी साधक हैं। जे एप चरंति आहिये, मातेणं महता महेसिणा । जो पुरुष महान् महर्षि ज्ञातपुत्र के द्वारा इस धर्म का आचसे उद्दित से समुद्विता, अप्रोग्मं साति धम्मो ॥ रण करते हैं, वे ही मोक्षमार्ग में उत्थित (उद्यत) है, और वे सम्यक् प्रकार से समुत्थित (ममुचित) हैं तथा वे ही धर्म से (विचलित या भ्रष्ट होते हुए) एक-दूसरे को संभालते है, पुनः धर्म में स्थिर या प्रवृत्त करते हैं। मा पेह पुरा पणामए, अभिकखे उहि धुपित्तए। __ पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों (प्रणामकों) का अन्तनिरीक्षण जे दूवगतेहि णो णपा, ते जाणति समाहिमालियं ।। या स्मरण मज करो। उपधि, माया या अष्टविध कर्म-परिग्रह को धुनने दूर करने की अभिकांक्षा (इच्छा) करो। जो दुर्ममस्कों (मन को दूषित करने वाले शब्दादि विषयों) में नत (समर्पित या आसक्त नहीं है, वे (साधक) अपनी आत्मा में निहित समाधि (राग-द्वेष से निवृत्ति या धर्मध्यानस्थ पित्तवृत्ति) को जानते हैं। जो काहिए होज्ज संजए, पासणिए गं य संपसारए। संयमी पुरुष विरुद्ध काथिक (कथाकार) न बने, न प्राश्निक पाचा घम्म अणुत्तरं, ककिरिए प मा यावि मामए ।। (प्रश्नफलवक्ता) बने, और न ही सम्प्रसारक (बर्षा, वित्तोपार्जन मादि के उपाय निर्देशक) बने, न ही किसी वस्तु पर ममत्ववान् हो; किन्तु अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) धर्म को जानकर संयमरूप धर्म क्रिया का अनुष्ठान करे। ण हि पूण पुरा अणुस्सुतं, अयुवा तं तह णो समुष्ट्रिय । जगत् के समस्त भावदर्शी ज्ञातपुत्र मुनि पुंगव भगवान महामुणिणा सामाइमाहितं, णाएणं जगसवसिगा। वीर ने जो सामायिक आदि का प्रतिपादन किया है, निश्चय ही जीवों ने उसे सुना ही नहीं है, (यदि सुना भी है तो) जैसा उन्होंने कहा, वैसा (यथार्थ रूप से) उसका आचरण (अनुष्ठाम) नहीं किया है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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