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________________ ५६०] चरणानुयोग आरण्यकाधिकों का आहारादि ग्रहण करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ९८०-८४ आरणगाईणं आहारगहण-पायच्छित्त सुसाइं- आरण्यकादिकों का आहारादि ग्रहण करने के प्रायश्चित्त ६८०. जे भिक्खू आरणगाणं वणंथाणं अडविनता संपट्टियाणं १८०. जो भिजू भरण्य में जाने वालों का, वन में जाने वालों असणं वा-जान-सादम वा पडिग्गाहेइ, पउिम्गात बा का, अटवी की यात्रा में प्रस्थान यसो वाली का अनन-यावतसाइज्जड़। स्वादिम पदार्थ लेता है, लवाता है, लेने वाल का अनुमोदन करता है। जे मिश्बू आरणगाणं वगंधाणं अडविजत्तामओ पक्षिपियत्ताणं जो मिशु अरण्य से, बन से या अदबी की याश से लौटने असणं या-जाव-साइमं या पडिग्गाहेड, पडिग्गाहेतं वा वालों का अणन · यावत् - स्वादिम पदार्थ लेता है, लिवाता है, साइजइ। लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि.उ.१६, सु. १२-१३ आता है।। णिवेयणापिंड-मुंजमाणस्स पायच्छित्तसुतं.-- नैवेद्यपिंड भोगने का प्रायश्चित्त सूत्र६८१. जे भिक्खू निवेयपिडं झुंजह, मुंजतं वा साइज्जइ । १८१. जो भिक्षु नैवेद्य का आहार करता है कराता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेधमाणे आवज्जइ घाउम्मासियं परिहारट्टाणं उसे चातुर्माशिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्धाइयं । -नि. उ. ११. सु. ८१ आता है। अच्चुसिणं-आहार-गहणस्स पायच्छित सुतं- अत्युष्ण आहार लेने का प्रायश्चित्त सूत्र९८९. जे भिक्खू असणं वा-जाव-साइमं वा उसिणुसणं पडिग्गा. म. जो मित् गर्मागर्म असन-पावत्- स्वाद्य पदार्थ लेता हेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे चातुमासिक उपातिक परिहारस्थान (पायश्चिन) ...नि. उ. १७. सु. १३१ आता है। रायपिंडगहणस्स भंजणस्स य पायचिठत्त सुत्ताई- राजपिण्ड ग्रहण करने और भोगने के प्रायश्चित्त सूत्र९८३. जे भिक्खू रायपिड गेण्हाइ, गेहत वा साइजह । १३. गो भिक्षु राजपिंड को ग्रहण करता है. करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षू रायपिट भुंजइ, मुंजतं वा साइजह । जो भिक्षु राजपिंट का उपभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुनोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जई चाउम्मासियं परिहारहाणं उसे चातुर्मासि अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्घाइयं । -नि. उ. ६. मु. १-२ आता है। अंतेउर पवेसणस्स भिक्खागहणस्स य पायचिछत्तसुत्ताई- अन्तःपुर में प्रवेश व भिक्षा ग्रहण के प्रायश्चित्त सुत्र९८४. जे भिक्खू रायतेपुरं पविसइ, पविसंत वा साइजह । ६८४, जो भिक्षु राजा के अन्त.पुर में प्रवेश करता है, करवाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रायतेपुरियं वएज्जा जो भिक्षु राजा के अन्न:पुर की दासी को ऐसा कहे“आउसो रायसेपुरिए ! गो खलु अम्हं कप्पइ रायतेपुरे हे आयुष्मति ! राजान्तःपुर रक्षिके ! हम साधुओं को णिक्वमित्तए वा पविसित्तए वा। राजा के अन्तःपुर में निष्क्रमण या प्रवेश करना नहीं कल्पता है, इमण्हं तुर्म पडिग्रहं गहाय रायतेनुरालो असणं बा-जाव- तुम इस पात्र को ग्रहण कर राजा के अन्त:पुर से अपन साइमं या अभिहां आहटु वलयाहि" -पावत् – स्वाद्य लाकर मुझे दो।' मोतं एवं वयइ, वयंत वा साइजइ। जो,उससे इस प्रकार वहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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