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वरणानुयोग
कोठे में रखे हुए आहार को लेने का निषेध
सूत्र ९१६-९१६
से तत्व पयलमाणे वा, पवडमाणे वा, हत्थं चा, पायं वा, पैर फिसलने पर या गिर पड़ने पर उसके हाथ, पैर, बाटु, माटुं या, उस बा, उदरं या, सोसं वा, अण्णतरं वा कार्यसि उरू, उदर, सिर या अन्य शरीर की इन्द्रियाँ क्षत-विक्षत हो वा इन्दियजावं लूसेन्ज वा, पाणाणि वा-जाव-सत्ताणि था अभिाणेज्ज बा, बत्तेज बा अथवा उसके गिरने पर प्राणी-यावत्-सत्वों का हनन लेसेज वा, संघसेज्ज था, संघट्ट ज वा, परियावेज वा, हो जावे, वे नीचे दब जावें, मंकुचित हो जावें, कुचल जायें, फिलामेज वा, उद्दवेन्ज वा, ठाणाओ ठाणं संकामेज वा, परस्पर टकरावें. पीडित हों, संतप्त हों, त्रस्त हों, उनका स्थाजीवियाओ ववरोवेज्ज वा,
नान्तरण हो या बे मृत्यु को प्राप्त हो । अह भिक्खूणं पुष्योविट्ठा एस पद्दण्णा-जाव-उत्रएसे जंतर- अतः भिक्षु को पहले से ही यह प्रतिज्ञा-यावत्-उपदेश पगारं मालोहडं असणं वा-जाव-साइमं वा अफासुयं-जाव- दिया गया है कि इस प्रकार अगन-यावत् -स्वाद्य अप्रामुक
गो पहिगाहेजा।'-आ. सु. २, अ. १, उ, ७, सु. ३६५ जानकर-यावत् - ग्रहण न करे। मालोहडआहारगणस्स पायच्छित्त सुत्तं
मालोपहृत आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र६१७. जे मिक्लू मालोहडं असणं वा-जात्र-साइमं वा,
६१७. जो भिक्षु मालोगहत अगन -यावत- स्वादिम देते हुए देजमाणं पजिग्गाहेद पडिग्गाहेंत वा साइज्जा।
को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उग्घायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहार स्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. उ. १७, सु. १२३ आता है। कोट्ठाउत्त आहार गहण णिसेहो
कोठे में रखे हुए आहार को लेने का निषेध६१८. से मिक्खू बा, भिक्खूणो वा गाहावइकुछ पिउवाय पडियाए ६१८. भिदा वा भिक्षुणो आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश
अणुपविट्ठ समाणे से उजं पुण आणेना-असणं वा-जाद- करने पर यह जाने कि गृहस्थ साधु के लिए अशन-यावत् - साइमं वा कोट्ठिगातो वा कोलेजातो वा अस्संजए भिक्खु- स्वाद आहार मिट्टी आदि को बड़ी कोठी में से या ऊपर से पडियाए उपज्जिय अवज्जिय ओहरिय आहटु बलएज्जा । संकड़ी और नीचे से चौड़ी लम्बी कोठी में से ऊँचा होकर, नीचे
अककर निकालकर देना चाहता है । तहप्पणारं असणं वा-जाव-साइमं वा मालोहर ति णचा ऐसे अगन-यावत्- स्वाद्य आहार को मालोपहत (दोष लामे संते गो पहिगाहेग्जा।
से युक्त) जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। -आ. सु. २, अ. १. उ. ७. सु. ३६६ नाइजचे व नीए वा, नासन्ने नाइदूराओ।
नवमी मुनि गृहस्थ के लिए बना हुआ प्रासुक आहार ग्रहण फासुयं परकर पिण्य, पडिगाहेज्म संजए॥
करे, किन्तु अति केचे या अति नीचे स्थान से दिया जाता हमा -उत्त. अ. १, गा. ३४ तथा अति सर्मप या अति दूर से दिया जाता हुआ प्रासुक आहार
भी न ले। कोट्ठाउत्त आहार गहणस्स पायच्छित मुत्तं
कोठे में रखा हुआ आहार लेने का प्रायश्चित्त सूत्र१६. सिमखू कोट्टियाउत्तं असणं वा-लाव-साइम र उक्कु- ११६. जो भिक्षु कोठे में रखे हुए अञ्चन –यावत् -स्वाब को
ज्जिय निषकुज्जिय ओहरिय देजमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गा- ऊँना होकर, नीचे झुककर, निकालकर देते हुए को लेता है, हेत वा साइजह ।
लिवाता है, या लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जद चाउम्मासियं परिहारट्ठाण उग्धाइयं । उसे चातुमामिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि, उ. १०,सु. १२४ आता है।
निस्सेणि फलग पीढ़, उत्सवित्ताणमारहे । मंच की च पासायं, समणट्ठाए व दाबा ॥ दुरूहमाणी पवईज्जा, हत्थं पायं व लूमर । पुढविजीत्रे विहिंसेज्जा, जे य तन्निसिया जगा ।। एयारिसे महादोसे, जाणिकग महे सिणी । तम्हा माल हट भिवलं न पहिगेण्हति संजया ।। -दल. अ.५, उ. १, मा.९५-१००