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________________ सूत्र ६१४-६१६ उभिन्न आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति ५६१ केवली वमा-आयाणमेयं । केवली भगवान् कहते हैं-यह कर्म आने का कारण हैअस्संजए भिक्षुपडियाए मट्टिसोलितं असणं वाजाव- क्योकि असंपत गृहस्थ साधु को अशन-यावत्-स्वादिम साइमं वा उभिवमाणे पुढवीकार्य समारंभेग्जा, तह तेज- देने के लिए मिट्टी के लिपे हुए बर्तन का मुंह उपभेदन करता बाउ-वणस्सति-तसकार्य समारंभेज्जा पुरवि ओसिपमाणे खोलता) हुआ पृथ्वी काय का समारम्भ करेगा. तथा अग्निकाय, इच्छाकम्म करेजा। यायुनाय, बनस्पतिकाय और उसकाय का समारम्भ करेगा। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पप्रचात् कर्म करेगा। भह भिक्खूणं पुलवोवविट्ठा-जाब-एस उपएसे तहप्पगार इसीलिए तीर्थकर भगवान ने पहले से ही यह प्रतिज्ञा मट्टिओलितं असणं वा-जाव-साइमं या अफासुयं-जाब-णो - यावत्-उपदेश दिया है कि मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोलपडिगाहेम्जा । - मा. मु. २, अ. १, उ. ७, सु. ३६७ कर दिये जाने वाले अशन-पावत्-स्वादिम आहार को अप्रा सुक जानकर-धावत्-ग्रहण न करे। वगवारएण पिहिर्ष, नीसाए पौडएण था। अशनादि का पात्र जल के छोटे बड़े से, पीसने की शिला से, लोढेण या वि लेवेण, सिमेण व केणइ। पोढे से या पोसने के पत्थर (लोढी) से अथवा लाख आदि से मुंह बन्द किया हुआ हो, तं च उरिमदिया वेज्जा, समणट्टाए व वायए। उसे थमण के लिये खोलकर देवे तो नुनि देने वाली स्त्री से बेलियं पडियाइरखे, न मे कम्पह तारिस ।। कहे कि "इस प्रकार का आहार लेना मुझे नहीं करूपता है।" .दस. अ.५, उ.१ गा. ६०-६१ उभिग्णआहारगहणपायच्छित्त सुतं--- उद्भिन्न आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त नूत्र६१५. भिक्खू मट्टिओलितं असणं वा-जाव-साइम वा ६१५. जो भिक्षु मिट्टी से लिप्त अशन--यावत् स्वादिम को उम्मिविय निम्भिविय बेज्ममाणं पडिग्गाहेइ पविग्यात पा लेप तोड़कर देने पर ग्रहण करता है, प्रहण करवाता है या ग्रहण साइज्जह। करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्टागं उग्याइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहास्थान (डायश्चित्त) -नि. ७.१७, सु. १२५ आता है। (5) मालोहडदोसं (८) मालोपहृत दोषमालोहड आहारगहण णिसेहो--- मालोपहृत आहार ग्रहण करने का निषेध६१६. से भिक्खू वा भिक्खूणौ वा गाहावाकुलं पिंडयायपडियाए ६१६. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अणुपवि? समाणे से जं पुण जाणेज्जा-असणं बा-जाब- करने पर यह जाने कि-अशन . यावत्-स्वाध स्तम्भ पर, मंच साइमं या खंधसि वा, मंचंसि बा. मालंसिवा, पासावसि पर, माले पर, प्रासाद पर और महल की छत पर या अन्य भी बा, हम्मियतलंसि वा, अण्णयर सि बा, तहप्पगारंसि बत- ऐसे आकाशीय स्थान पर रखा हुआ है। लिक्ख जायंसि उवणिक्खिसे सिवा । तहप्पगार मालोह असणं वा-जाव-साइमं वा अफासुर्य-जात्रा ऐसा मालोपहृत अशन-यावत्-स्वाध अनासुफ जानकर यो पङिगाहेजा। -यावत् - ग्रहण न करे। केबलो यूया-आयाणमेयं । केवली भगवान्) ने कहा है-उक्त प्रकार का आहार लेना कर्मबन्ध का कारण है। अस्संजए भिक्लपडियाए पीत वा, फलगं या. णिस्सेणि वा, भिक्ष के लिए गुहस्थ पीटा, पाटिया, निसेणी या ऊस्बल उबूहलं घा, अवहट्टु उस्सविय बुरूहेजा। लाकर व खड़ा रखकर ऊपर चढ़े । से तत्य दुहमागे पपलेज्ज वा, पवढेच वा। चढ़ते हुए उसका पैर फिसल जय या वह गिर पड़े,
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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