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________________ ५६०] चरणानुयोग अभिहूत आहार ग्रहण करने का निषेध सूत्र ९११-११४ मिक्खियव्यं न केयव्य, भिक्खुणा भिक्खयन्तिणा। भिक्षा-वृत्ति बाले भिक्षु को भिक्षा ही करनी चाहिए किन्तु कय विक्को महाबोसो, भिवतावितो मुहावहा ॥ खरीदना नहीं चाहिए । क्रय विक्रय महान् दोष है। भिक्षावृत्ति -उत्त. अ. ३५, गा, १४-१५ कुछ को देने वाली है। (६) अभिहडदोस (६) अभिहड़ दोष-- अभिहड आहार गहण णिसेहो अभिहृत आहार ग्रहण करने का निषेध . ६१२. जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति- पुट्ठो अबलो अहमसि, ११२. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि 'मैं रोगग्रस्त गालमहमंसि गिहतरसंकमणं मिक्खायरियं गमणाए", होने से दुर्बल हो गया है। अतः मैं भिक्षा लाने के लिए एक घर से दूसरे पर जाने में समर्थ नहीं हूं।" से सेवं वदंतस्स परो अभिहत असणं वा-जाव-साइमं वा उसे इस प्रकार कहते हुए (सुनकर) कोई गृहस्थ अपने घर आहटुबलएग्जा, से अशन यावत् स्वादिम सामने लाकर दे तो, से पुष्वामेव आलोएज्जा- "आउसंतो गाहावती पो खलु मे वह भिक्षु उसे पहले ही कहे "आयुष्मन् गृहपति ! यह घर कप्पति अभिहरं असणं वा-जाव-साइमं या भोत्तए वा से सामने लाया हुआ अशन-यावत् स्वादिम मेरे लिए सेवनीय पात्तए वा अण्णे वा एतप्पमारे। नहीं है । इसी प्रकार सामने लाये हुए दूसरे पदार्थ भी मेरे लिए -आ० स० १, अ० ८, उ० ५, सु०२१८ ग्रहणीय नहीं है।" अभिड दोसस्स पायच्छित्त सुतं अभिड़ दोष का प्रायश्चित्त सूत्र-- ६१३. जे भिक्खू गाहावह-कुलं पिण्डवाय-पडियाए अणुषविट ६१३. जो भिक्षु गाथापति के कुल में आहार के लिए प्रवेश समाणे पर ति-घरंतराओ असणं वा-जाव-साइमं वा करके तीन घर के उपरान्त से अशन -पावत् -वाद्य सामने अमिहर आहट्ट विज्जमाणं पजिग्गाहेड, पडिग्गाहेतं बा लाकर देने पर ग्रहण करता है, करवाता है या करने वाले का साइज्जह। ___ अनुमोदन करता है। तं सेषमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उन्धाइयं। उसे उदघातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त आता है। -नि. ७, ३, सु. १५ (७) उभिण्णदोस - (७) उदभिन्न दोषअभिग्ण आहार गहण णिसेहो उद्भिन्न भाहार ग्रहण करने का निषेध९१४. से भिक्खू वा मिक्खूणी षा गाहावइकुतं पिंडवायपडियाए ११४. भिक्षु या भिक्षुषी गृहस्य के घर में आहार के लिए प्रदेश अणुपविठे समाणे से जं पुण गाणेज्जा असणं वा-जाव- करने पर यह जाने कि वहाँ अशन पावत्-स्वादिम आहार साहम वा मदिओलितं। तहप्पणारं असणं या-जाब-साइमं मिट्टी के लिपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार या अफासुयं-जाव-णो पडिगाहेजा। का असन- पावत्-स्वादिम अप्रासुक जानकर-यावत् - ग्रहण न करे । १ दसा. द. २. सु. २ २ गच्छत्यागी श्रमण जरा से जीर्थ देहवाला होने पर या किनी महारोग से अशक्त असमर्थ होने पर अपने लिए आहारादि न ला सके तो भी वह किसी गृहस्थ द्वारा लाया हुआ आहारादि न ले। यदि वह अभिग्रहधारी हो और आचारांग सु. १, अ. ८, ३. ५. पा ७ के अनुनार उसके अभिग्रह में दूसरे श्रमण द्वारा लाया हुआ आहार लेने का आगार हो तो उस से साया हुआ आहार ले सकता है। अथवा उन्न. अ १६ में उक्त मृगचर्या में रत रहकर संथारा संलेहगा करके पण्डित मरण प्राप्त हो किन्तु अभ्याइत दोष युक्त आहार न ले। गच्छवासी अशक्त असमर्थ श्रमण की वैयावृत्य करने वाले तो अन्य श्रमण होते ही हैं अत: उसके लिए अभ्याइत दोष युक्त आहार लेने का विकल्प सम्भव नहीं है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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