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सूत्र ६०६-६११
पूतिकर्म दोषयुक्त आहार का निषेध
चारित्राचार : एषणा समिति
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तं भवे भत्तपाणं सु, संजयाग अम्पियं ।
यह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए बेतिय पडियाइफ्ले, न मे कप्पा तारिस ।
मुनि देती हुई स्त्री को मना करे कि "इस प्रकार मा आहार -दस. अ. ५, उ. १, गा, ६८.६६ मुझे नहीं कल्पता है।" (३) पूइकम्म योसं
(३) पूतिकर्म दोषपूइकम्मदोसजुत्तआहारस्स णिसेहो
पृतिकर्म दोषयुक्त आहार का निषेध१०७. पूतिकम्म णं सेवेज्जा, एस धम्मै चुसीमतो। ६.०७. पूतिकर्मयुक्त आहार का सेवन न करे यही संगमी का धर्म जं किचि अभिकखेज्जा, सय्यसो तंग कप्पते ॥
है। जो अनादि किंचित् भी शंकित हो, उसका सर्वथा उपभोग -मय. सु. १. अ. ११, गा. १५ न करे। पूइफम्मदोसजुत्तआहार गहण परिणामो
पूतिकर्म दोषयुक्त आहार ग्रहण करने का परिणाम६.०८. जं किचि वि पूतिकडं सतीमागंतुमीहियं ।
१०८ श्रद्धालु गृहस्व द्वारा आगन्तुक भिक्षुओं के लिए बनाये सहस्संतरियं मुंजे, दुपक्वं चेव सेवती ।
आहार से अन्य शुद्ध आहार किचित् भी पूतिकृत (मिश्रित) हो गया, उस आहार को जो साधन हजार घर का अन्तर होने पर भी खाते हैं के साधक (गृहस्थ और साधु) दोनों पक्षों का सेवन
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तमेव अविजाणता. बिसममि अकोविया ।
वे पुतिकर्म सेवन से उत्पन्न दोष को नहीं जानते तथा कर्म मच्छा वेसालिया चेय, उदास्सऽभियागमे ।।
बन्ध के प्रकारों को भी नहीं जानते। वे उसी प्रकार दुःखी होते
हैं, जैसे वैशालिक जाति के मत्स्य जल की बाढ़ आने पर। उदगस्सप्पभावेणं, सुक्कमि घातमिति उ ।
बाढ़ के जल के प्रभाव से मूखे स्थान में पहुँचे हुए वैशालिक केहि य केहि य, आमिसरहिं ते बुहो ।
मत्स्य जैसे मांसाथीं ढंक और कक पक्षियों द्वारा सताये जाते हैं। एवं तु समणा एगे, वट्टमाणसुहेसिगो।
इसी प्रकार वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मच्छा सालिया चेन, घातमेसंगतसो ।
मत्स्य के समान अनन्त बार विनाश को प्राप्त करते हैं। -मूव. सु. १, अ १ . ३. गा.१-४ पूइकम्मदोस जुत्त आहारं भुजमाणस्स पायच्छित्त सुतं- पुतिकर्म दोषयुक्त आहार करने का प्रायश्चित्त सूत्र९०६. जे भिक्खू पूर्वकम्म भुजइ, भुजसं का साइज्जइ । E६. जो भिक्षु पूर्तिकर्म दोषयुक्त आहार करता है, करवाता है
या करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह मासियं परिहारवाणं अगुग्धाइय। लसे मासिक अनुवातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. उ. १, सु. ५६ आता है। (४) ठवणा दोस
(४) स्थापना दोषठवणा दोसस्स पाच्छित्त सुतं -
स्थापना दोष का प्रायश्चित्त सूत्र६१०, जे भिक्खू ठवणाकुलाई अगाणिय अपुच्छिय अगसिय ६१०. जो भिक्षु स्थापित कुलों को जानने पूछने या गवेषणा
पुवामेव पिडायपडियाए अशुष्प विसह, अणुप्पविसंतं वा करने के पहले ही माहार के लिए प्रवेश करता है, करवाता है, साइउजइ।
या करने वाले का अनुमोदन करता है। ते सेवमाणे आवज्जा मासिय परिहारठाण उधाइयं । उसे मासिक उघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है।
-नि. उ.४.सु. २२ (५) कीय दोसं
(५) जीत दोषकीय आहार गहण णिसेहो
क्रीत आहार ग्रहण करने का निषेध - ९११. किर्णतो कइओ होह, विषिकर्णतो य वाणिओ। ६११. वस्तु को खरीदने वाला त्रयिक (खरीददार) होता है और कर विक्कम्भि वट्टरतो, भिक्खू न भवह तारिसो॥ बेचने वाला वणिक (विक्रेता) होता है। कय और विषय की
प्रवृत्ति करने वाला उत्तम भिक्षु नहीं होता है ।