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________________ १९२] वरणानुयोग अभ्यतोथियों की प्ररूपणा और परिहार सूत्र २५३-२५ namaA.www एवं सिया सिद्धि हवेज्ज सम्हा, मिथ्यावादी हैं। मदि इस प्रकार (अग्मिस्पर्श से या अग्निकार्य अगणि फुसंताग कुकम्मिणं पि ।। करने) से सिद्धि मिलती हो, तब तो अग्नि का स्पर्श करने वाले (हलवाई, रसोइया, कुम्भकार, लुहार, स्वर्णकार आदि) कुकर्मियों (आरम्भ करने वालों, आग जलाने वालों) को भी सिद्धि प्राप्त हो जानी चाहिए। अपरिपल दिgण एव सिद्धी, जलस्तान और अग्निहोत्र क्रियाओं से सिद्धि मानने वाले एहिति ते घातमबुज्यमाणा । लोगों ने परीक्षा किये बिना ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर भूतेहि जाण एडिलेह सातं, लिया है। इस प्रकार सिद्धि नहीं मिलती। वस्तुतत्व के बोध विज्ज गहाय तस-यावरहि ॥ से रहित वे लोग घात (संसार भ्रमणरूप अपना विनाश) प्राप्त करेंगे । अध्यात्मविद्याथान् (सम्यग्ज्ञानी) यथार्थ वस्तुस्वरूप का ग्रहण (स्वीकार) करके यह विचार करे कि पस' और स्थावर प्राणियों के घात से उन्हें सुख कैसे होगा? यह (भलीभांति) समझ ले। थति सुप्पति तसंति कम्मी, पापकर्म करने वाले प्राणी पृथक्-पृथक् रुदन करते हैं, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । (तलवार आदि के द्वारा) छेदन किये जाते हैं, बास पाते हैं । तम्हा विकू विरते आयगुप्त, यह जानकर विद्वान् भिक्ष पाप से विरत होकर आत्मा का रक्षक बड़े ससे य परिसाहरेग्जा ॥ (गोप्ता या मन-वचन-काय-गुप्ति से युक्त) वने। वह उस और -सूय. सु. १. अ. ७, गा. १२-२० स्थावर प्राणियों को भलीभांति जानकर उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाय। अण्णतित्थियाणं परूवणा परिहारो य अन्यतीथियों की प्ररूपणा और परिहार--- २८४ तमेव अविजाणता, | २८४. उसी (प्रतिपूर्ण अनुपम निर्वाणमार्गरूप धर्म) को नहीं अयुया बुद्धमाणिणो । जानते हुए अविवेकी (अबुद्ध) होकर भी स्वयं को पण्डित मानने सुद्धा मो ति य मण्णता, वाले अन्यतीथिक हम ही धर्म तत्व का प्रतिवोध पाए हुए है यो ___ अंतए है समाहिए ॥ मानते हुए सम्यग्दर्शनादिरूप भात्र समाधि से दूर हैं। ते य बोनोद चेष, बे (अन्यतीथिक) बीज और सचित्त जल का तथा उनके उद्देश्य तमुहिस्सा य जं कर्ड। (निमित्त) से जो आहार बना है, उसका उपभोग करके (आतं) भोच्चा माणं शियायंति, ध्यान करते हैं, क्योंकि वे अखेदज्ञ (उन प्राणियों के खेद-पीड़ा से अखेतपणा असमाहिता॥ अनभिज्ञ या धर्म ज्ञान में अनिपुण) और असमाधियुक्त हैं। जहा ढका य कंका य, फुलला मरगुका सिहो। जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्गा और शिखी नामक जलचर मच्छसणं शियायंति, साणं से कसुसाधम ।। पक्षी मछली को पकड़कर निगल जाने का बुरा विचार (कुख्यान) करते हैं. उनका यह ध्यान पाररूप एवं अधम होता है। एवं तु समगा एगे, इमी प्रकार कई तथाकथित मिथ्यादृष्टि एवं अनार्य श्रमण मिडी अगारिया। विषयों की प्राप्ति (अन्वेषणा) का ही ध्यान करते हैं, अत: वे विसएसणं झियाति, भी ढंक, कफ आदि प्राणियों की तरह पाप भावों से युक्त एवं कंका वा कलुसाहमा ॥ अधम हैं। -सुय. सु. १, अ. ११, गा.२५-२५ मोक्ख विसारस्स उवएसो-- मोक्ष विशारद का उपदेश - २५५. अह ते परिमासेज्जा भिक्खू मोक्खविसारए । २०५. इसके पश्चात् मोशविशारद (ज्ञान-दर्शन-मारिष रूप मोक्ष एवं सुम्मे पमासता दुपक्वं सेव सेवहा ।। की प्ररूपणा करने में निपुण) साधु उन (अन्यतीथिकों) से (इस प्रकार) कहे कि यों कहते (आक्षेप करते हुए) आप लोग दुष्पक्ष (मिथ्या पक्ष) का सेवन करते (आयय लेते हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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