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________________ एम २५ मोक्ष विशारद का उपदेश बर्गनाधार १३ तुम्भे मुंजह पाए, गिसाणा अभिह ति य । तं च श्रीओवयं भोच्चा, तमुद्देसादि जं का।। सिता तिव्वामिताबेण, . उज्या असमाहिया। मातिकंडात सेयं, अश्यस्साबरमतों सत्तेश अणुसिट्टा, ते अपहिणेण जाणया। ण एस णियए मरगे, असमिक्खा वई किती।। आप सन्त लोग (गृहस्थ के कांसा, तांबा आदि धातु के) पात्रों में भोजन करते हैं, रोगी सन्त के लिए गृहस्थों से (अपने स्थान पर) भोजन मंगवा कर लेते हैं, तथा आप बीज और सचित्त (कच्चे) जल का उपभोग करते हैं एवं जो आहार किसी सन्त के निमित्त (उद्देश्य) से बना है उस औशिक आदि दोषयुक्त आहार का सेवन करते हैं। ___ आप लोग तीव कषायों अथवा तीव्र बन्ध बाले कर्मों से लिप्त (सद्विवेक से—) रहित तथा समाधि (शुभ अध्यवसाय) से रहित हैं। (अतः हमारी राय में) घाव (व्रण) का अधिक खुजलाना अच्छा नहीं है, क्योंकि उससे दोष (विकार) उत्पन्न होता है। जो प्रतिकूल जाता नहीं है अथवा जिसे मिथ्या (विपरीत) अथं बताने की प्रतिज्ञा नहीं है, तथा जो हेय-उपादेय का ज्ञाता साधु है, उसके द्वारा उन (आक्षेपकर्ता अन्य दर्शनियों) को सत्य (तत्व वास्तविक) बात की शिक्षा दी जाती है कि यह (आप लोगों द्वारा स्वीकृत) मार्ग (निन्दा का रास्ता) नियत (युक्ति संगत) नहीं है, आपने सुविहित साधुओं के लिए जो (आक्षेपास्मक) वचन कहा है, वह बिना बिचारे कहा है, तथा आप लोगों का आचार भी विवेकशून्य है। आपका यह जो कथन है कि साधु को गृहस्थ द्वारा लाये हुए आहार का उपयोग (सेजन) करना श्रेयस्कर है, किन्तु साधु के द्वारा लाये हुए का नहीं, यह बात बाँस के अग्रभाग की तरह कमजोर है, (वजनदार नहीं है।) (साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए), यह जो धर्म-प्रज्ञापना (धर्म-देशना) है, वह आरम्भ-समारम्भयुक्त गृहस्थों की विशुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, इन दृष्टियों से (सर्वज्ञों ने) पूर्वकाल में यह प्ररूपणा नहीं की थी। समय युक्तियों से अपने पक्ष की सिद्धि (स्थापना) करने में असमर्थ वे अन्यतीर्थी तब बाद को छोड़कर फिर अपने पन की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं । राग और द्वंष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, जो व्यक्ति मिथ्याव से ओत-प्रोत हैं, के अन्यतीर्थी शास्त्रार्य में हार जाने पर आक्रोश (गाली या अपशब्द आदि) का आश्रय लेते हैं। जैसे (पहाड़ पर रहने वाले) टंकणजाति के म्लेच्छ (युद्ध में हार जाने पर) पर्वत का ही आश्रय लेते हैं। जिसकी चित्तवृत्ति समाधि (प्रसन्नता या कषायोपशान्ति) से युक्त है, “वह मुनि, (अन्यतीर्थी के साथ विवाद के समय) अनेक गुण निष्पन्न हो, जिससे इस प्रकार का अनुष्ठान करे और दूसरा कोई व्यक्ति अपना विरोधी न बने।... - एरिता मा बई एसा, अग्गे घेणु स्व करिसिता । गिहिणो अमिह सेयं, मुंजितुं न तु भिक्षु णो ॥ धम्मपण्णवणा जा सा, सारंभाग विसोहिया । न तु एताहि विट्ठीहि, पुरषमासि पप्पियं ॥ सव्वाहि अशजुत्तीहिं अचयंता जवित्तए । ततो वायं गिराकिच्चा ते मुज्जो वि पगम्भिता ।। :: .... रागदोसाभिभूतप्पा । मिच्छतण अभिवुता। अक्कोसे सरगं जंति, टकणा इव पवयं ॥ अत्तसमाहिए। बहुगुणप्प गप्पा कुज्मा आणणो ण विश्ोज्जा, तेणं तं तं समायरे ।।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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