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१४] चरणानुयोग
इमं च धम्ममाधाय कासवेण पवेइयं ।
कुम्ला मिक्खू गिलाणस्स
गिलाए समाहिते ।।
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निव्वाणमेव साहे
२५६. वाचपरमा
बुद्धा,
तम्हा सथा जते दंते,
ताणं व पंदिमा ।
. २.१.११-२०
निवासंघले मुणी ॥
निर्वाण ही साध्य है
मोलमध्ये अपमत्तगमणोवएसो
२८७ ननिस्सिाई बहुमए दिसनदेशिए संपद नेयाजए पहे, समयं गोयम ! मा पमायए ।
२८६. जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रधान है, वैसे ही निर्वाण को ही प्रधान (एम) मानने वाले (परलोकार्थी) तत्वाधकों के लिए
(स्वर्ग भवतित्व, धन आदि को छोड़कर) निर्वाण ही सर्वश्रेष्ठ
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(परम पद) है। इसलिए मुनि सदा दान्त ( मन और इन्द्रियों का
सू. सुं. १, अ. ११ गा. २२ विजेता) और पत्नशील (मानाचारी) होकर निर्वाण के साथ हो धान करे, प्रवृति करे ।
मोक्ष मार्ग में अप्रमत्त भाव से गमन का उपदेश -
सबसोहि कष्टापहं ओहो ति यह महाल छविसोहिया, समयं गोपन ! म पमायए ।
पिवाणमूलं सम्म सणं२८. नरि चरितं सम्मत बिहूणं, सभ्यतमरिसाई
अब ह मारवाहए, मामागे विमेाहिया । वातावर, समयं गोयम ! मा पमायए ।
पच्छ
पहाणा मोमया
२६. अन्तकालस्स
शिष्णो इसि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमभगाओ । अभिराममिलए समयं गोमय मा पमायए । - उत्त. अ.१०, मा. ३१-३४
सगे उ भवं । सुगमंच सम्म ॥
नासि नानं नागवाना अनुचित गरि भोक्लो नचि मोष निवाणं ।। - उत्स. अ. २८, गा. २६-३०
नगरस
सरस युक्खस्स उ जो पोषणो । तं मासओ मे पडिपुण्णविता, सुमेह एकमहि
हियस्वं ॥
सूत्र २०५-२०१
काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके समाधिस्त भिक्षु रुग्ण साधु की सेवा (या) रहित होकर करें। निर्वाण ही साध्य है
२७. "आज जिन नहीं दी रहे हैं, जो मार्ग एकमत नहीं है" मी पीड़ियों को इस कठिनाई का अनुभव होगा, किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुझे पार ले जाने वाला व्यापूर्ण) पथ प्राप्त है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत
कर ।
कांटों से भरे मार्ग को छोड़कर तु विशाल-पथ पर चला आया है । दृढ़ निश्चय के साथ उसी मार्ग पर चल । हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।
वही भारवाह की तनू में मत प जाना । विषम मार्ग में जाने वाले को पछतावा होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।
सूइस महान् समुद्र को और गया, अब तीर के निकट पहुँच कर क्यों खड़ा है ? उसके पार जाने के लिए जल्दी कर । हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । निर्वाण का मूल सम्यग्दर्शन
२०. सम्य-विहीन चारित्र नहीं होता। दर्शन (सम्यक में चारित्र की भजना (विकल्प) है। सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् ( एक साथ) उत्पन्न होते हैं और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं होते, यहाँ पहने यस्व होता है।
अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग्ज्ञान ) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारि-गुण नहीं होते। अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती । अमुक्त का निर्वाण नहीं होता । प्रधान मोक्षमार्ग
२८. अनादि कालीन सब दुःखों और उनके कारणों (कथाय आदि) के मोक्ष का जो उपाय है यह मैं कह रहा हूँ। वह एकांतहित (ध्यान के लिए हितकर) है, अत: तुम प्रतिपूर्ण चित्त होकर हित (मोक्ष) के लिए सुनो ।