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________________ सूत्र २८१-२६१ उन्मार्ग से गमन करने बालों को नरक्ष्यति दर्शनाचार [१६५ नाणस्स सम्वस्स पगासणाए, सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का नाश तथा अन्नाणमोहस्स विवजणाए। राग औरष का भय होने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष को रागस्स दोसस्स य संखएणं, प्राप्त होता है। एगन्तसोक्वं समुवे मोक्वं ॥ तस्सेस मागो गुरुवियसेवा, गुरु और वृद्धों (स्थविर मुनियों) की सेवा करना, अजानीविवज्जणा शालजणस्स दूरा। जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास "समायएमन्सनिसेवगा य", करना, गूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना, यह सुसत्य-संचिन्तणया धिई य॥ मोक्ष का मार्ग है। -उत्त. अ. ३२, गा.१-३ उम्मरपट्टाणं निरयगमणं उन्मार्ग से गमन करने वालों की नरकगति२६०. सुवं मागं घिराहिसा, हमेगे उ तुम्मतो। २६०. इस जगत् में कई दुर्बुद्धि व्यक्ति तो शुद्ध (निर्वाण रूप) उम्मग्गगता तुषणं, घंसमेसंति से सधा॥ भावमार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं । वे अपने लिए दुःख तथा अनेक बार घात (विनाश-मरण) चाहते हैं या डूंचते हैं। जहा मासाविणि नावं, जाति: कहिया । जैसे कोई जन्मान्ध पुरुष छिद्र याली नौका पर चढ़कर नदी पिछली पारमागंतु, अंतरा य विसीयती ॥ पार जाना चाहता है, परन्तु वह वाच(मझधार) में ही बूब जाता है। एवं तु समगा एगे, मिच्छट्ठिी अगारिया। इसी तरह कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण कर्मों के आश्रय सोपं कसिणमावण्णा, आगंतरो महम्मयं । रूप पूर्ण भाव स्रोत में डूबे हुए होते हैं। उन्हें अन्त में नरकादि -सूय. गु. १, अ. ११. सु. २६-२१ दुःख रूप महाभय पाना पड़ेगा। णिध्वाण साहणा निर्वाण मार्ग की साधना-- २६१. मं च धम्ममावाय, २६१. काश्यपगोपीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म कासवेण पवेवितं । को ग्रहण (स्वीकार) करके शुद्ध मार्ग साधक साधु महाघोर तरे सोयं महाघोरं, (जन्म-मरणादि दीर्घकालिक दुःखपूर्ण) संसार सागर) को पार अप्सत्ताए परिवए । करे तथा आत्मरक्षा के लिए संयम में पराक्रम करे। विरते गामधमेहि साधु माम धर्मों (शब्दादि विषयों) से निवृत्त (विरत) होकर जे के जगती जमा । जगत् में जो कोई (जीवितार्थी) प्राणी है, उन सुखप्रिय प्राणियों तेसि अत्तुवमायाए, को प्रारमवत् समझकर उन्हें दुःख न पहुँचाए, उनकी रक्षा के __ थाम कुवं परिष्वए॥ लिए पराक्रम करता हुआ संयम पालन में प्रगति करे। अतिमाणं च मायं च, परित मुनि अति-(चारित्र विषातक) मान और माया तं परिणाय पंडिते। (सथा अति लोभ और कोध) को (संसारवृद्धि का कारण) जानसम्वमेय निराकिच्चा, कर इस समस्त कषाय समूह का निवारण करके निर्वाण (मोक्ष) निस्वागं संघए मुणी ॥ के साथ आत्मा का सन्धान करे अथवा मोश अन्वेषण करे। संघते साधम च, (मोक्ष मार्ग परायण) साघु क्षमा आदि दविध श्रमण धर्म पावं पम्मं गिराकरे । अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप उत्तम धर्म के साथ मनउवधाणवीरिए भिक्बू वचन-काया को जोड़े अथवा उत्तर धर्म में वृद्धि करे। तथा जो कोहं माणं न पथए । पाप-धर्म है उसका निवारण करे। भिक्षु तपश्चरण (उपधान) में पूरी शक्ति लगाए तथा क्रोध और अभिमान को जरा भी सफल न होने दे।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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