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________________ सूत्र २३६-२३७ श्रमण के निमित्त प्रक्षालित पात्र के ग्रहण का निषेध चारित्राचार एवगा समिति [ ६६५ "आजसो ! ति वा, महणि ! ति वा आहरेय पाय तेल्लेण था. घण वा जवणीएण वा बसाए वा अम्मंगेला वा मा या समप्यस्स णं दासामो।" एक्प्पर गिर सोच्या सिम्म से पुन्यामेव आमोना "आउसो | ति वा मणि । ति वा मा एवं तुमं पाय सेल्लेण वा जाव बसाए वा अयंगाहि वा मला हि वा, अभिमेामे।" से सेयं वयं परो तेल्लेण वा जान बसाए वा अन्सनेला ar, Rrder at everजा हत्यारं पायें अकासु जाव णो पि सिया णं परो नेता वदेज्जा "उसो ! ति या भइणी । ति वा, आहर एवं पायं सिणा पेण वा जात्र पचमेण वा आसित्ता वा पत्ता वा समणस्स णं दालामो ।" एतप्पारं निग्पोस सोन्ना निसम्म से यामेज एज्जर "आउसो ! ति वा अणी ! ति वा मा एतं तुमं पायें सिणाणेण था- जाच पउमेण वा आवंसाहि वा पसाह वा मेलाह।" "आयुष्मन् भाई ! या बहुत ! वह पात्र लाओ, हम उस पर तेल, घी, नवनीत या वसा अल्प या अधिक चुपड़कर साधु को देंगे।" - आ. सु. २. अ. ६, उ. १, सु. ५६७ (३) समद्देसिय पक्खालिय- डिग्गहस्स गहन जिसेहो २३७. से णं परो नेता वबेन्जा- "ब्राउसो ! ति वा महणी ! ति वा, आहर एवं पायं सीओदन वियण वा उसिणोगविक्षेण वा उच्छोलेत्ता वा पधोवेत्ता वा समree णं दासानो" एप्पमारं निम्पो सोचा निसम्म से पुण्यामेट आलो एक्जा "आजसो ! तिवा, भहणी 1 ति वा मा एवं सुमं पायें सीओदगवियण श. उसिणोगविथ डेण वा उच्छोलेहि वा. पहिया । दाह" से सेवं जयंतस्थ परोसनविय या उसिणोगविय शेण था, उच्छोलेता वा, पधोवेत्ता वा बलएज्जा । तह्यगारं सफासु जावो पा -- आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५६७ (ख) इस प्रकार का कथन सुनकर एवं उस पर विचार करके वह पहले से ही कह ""आयुष्मत् गृहरु ! या आयुष्णाति बहन ! तुम इस पात्र को तेल से - यावत् चों से अल्प या अधिक न चुपड़ो यदि मुझे पात्र देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ तेल से - यावत् चर्बी से अल्प या अधिक चुपड़कर पाप देने लगे तो उस प्रकार के पात्र को अनासुफ जानकर — यावत् ग्रहण न करें । कदाचित गृहस्वामी पर के किसी क "आयुष्मन् भाई अथवा बहुन ! वह पात्र लाओ, हम उसे स्नान (सुगन्धित अन्य समुदाय ) से यावत्-पदमादि सुगन्धित पदार्थ से एक बार या बार-बार घिसकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार का कथन सुनकर एवं समझकर वह साधु पहले मे ही कह दें "आत् ! गृहस्थ था बहन ! तुम इस पात्र को स्नान (सुन्य समुदाय) से - यावत् समादि सुगन्धित द्रव्यों से आपण या प्रघर्षण मत करो। यदि मुझे वह पात्र देना दो तो ऐसे ही दे दो।" से से परो सिणाषेण वा जाव-परमेण वा क्षाधं साधु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ स्नान (सुगंधित सिता वा पावा हा पायं अकाव्य समुदाय से) यावत् पद्मादि सुगन्धित द्रव्यों से एक - जाव णो पडिगाज्जा बलएज्जा - बार या बार-बार घिसकर पत्र देने लगे तो उस प्रकार के पात्र को जानकर यावत् ग्रहण न करे । श्रमण के निमित्त प्रक्षालित पात्र के ग्रहण का निषेध - २३७. कदाचित् गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि "आयुष्मत् भाई या बहन ! उस पात्र को लाभो. हम उसे प्राक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या बार-बार धोकर श्रमण को देंगे ।" इस प्रकार की बात सुनकर एवं समझकर वह पहले ही दाता से कह दे- "आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! इस पात्र को तुम प्रामुक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या बार-बार मत धो । यदि मुझे इसे देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ उस पात्र को ठंडे पानी से या गरम पानी से एक बार या बार-बार धोकर साध को देने लगे तो उसे अप्रासु जानकर यावत् — ग्रहण न करे ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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