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सूत्र ५६-६४
'धर्म साधना में पांच सहायक
धर्म-प्रहापना
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एवं भवसंसारे, संसरह सुहासुहेहि कम्महि । इस प्रकार प्रमाद-बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्मजीवो पमायतुं जो. उपयं गोपद ! माना। मानव संसार में परिभ्रमण करता है, इमलिए है गौतम [ तू
क्षण भर भी प्रमाद मत कर। लन वि माणुसत्तणं. आरिअतं पुणरावि बुल्लहं।
मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, उसके मिलने पर भी आयं देश में महवे वसुया मिलेक्युपा, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ जन्म पाना और भी दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मनुष्य होकर भी
दस्यु और म्लेच्छ होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी
माद मत कर। लवण वि आपरियत्तगं, अहोगपंचिनियया दुल्लहा । ___ आर्यदेश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से पूर्ण विलिम्बियया हुवीसई, समय गोयम ! मा पमायए ॥ स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत सारे लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं,
इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अहीणपंचिनियतं पि से लहे, उत्तमधम्ममुई दुल्लहा। पानों इन्द्रियाँ पूर्ण स्वस्थ होने पर भी उसम धर्म की श्रुति कुतित्बिनिसेवए जणे, समय गोयम ! मा पमायए ॥ दुर्लभ है। बहुत मारे लोग कुतीथिकों की सेवा करने वाले होते
हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । सडूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुगरवि दुल्लहा । उत्तम धर्म की युति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक मिछत्तमिसेवए जणे, समय गोयम ! मा पमायए ॥ दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करने वाले होते
हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। धम्म पि हूँ सदहन्तया, कुल्लहया कारण फालया।
उत्तम धर्म में थड़ा होने पर भी उसका आचरण करने बह कामगुणहि मुगिछपा, समयं गोयम ! मा पमापए ॥ चाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे लोग काम-गुणों में -उत्त. अ.१०, गा. ४-२० मूच्छित होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद
मत कर। धम्मसाहलाए सहाया
धर्म साधना में सहायक-- ६०. धम्म चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णता, तं महा--- ६. धर्म का आचरण करने वाले भायु के लिए पांच निधा
(आलम्बन) कहे गये हैं । जैसेगणो,
१. षटकाय,
२. गण (श्रमणसंघ), राया, "गिहबई,
३. राजा,
४. गृहपति, सरीरं।
-ठाणं. अ. ५, उ. ३, सु. ४०७ ५. शरीर। सखासरूव-परूवर्ण
श्रद्धा के स्वरूप का प्ररूपण -- ६१. नस्थि धम्मे अधम्मे दा, नेव सर निवेसए ।
६१ धर्म अथवा अधर्म नहीं हैं, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए। अस्थि धम्मे अधम्मे वा, एवं सन्न निसाए ।
धर्म अपना अधर्म हैं, ऐभी श्रद्धा रखनी चाहिए। -सुय. सु. २, अ. ५, गा. १४ करणप्पयारा
करण के प्रकार६२. तिबिहे करणे पपणते, तं जहा
६२ करण तीन प्रकार का कहा है, यथाधम्मिए करगे, अधम्मिए करणे
१. धामिक करण, २. अधार्मिक करण, धम्मियायम्मिये करणे। --ठाणं, अ. ३, उ. ३, सु. २१६ ३. धार्मिकाधार्मिक करण । उवामभया
उपक्रम के भेद६३. तिविधे उरकमे पागले, तं जहा
६३. उपक्रम (उपायपूर्वक कार्य का आरम्भ) तीन प्रकार का कहा गया है-जैसे---