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________________ ६०२] धरणानुयोग मुनि आहार की मात्रा का ज्ञाता हो सूत्र १-२ अह कोई न इच्छेज्जा, तओ मुंज्जा एक्फओ। आलोए भायणे साहू, जयं अपरिसाडियं ।। तित्तमं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महरं लवणं वा । एय लामन्चट्ठ-पउत्त, महुघयं व मुंजेज्ज संजए॥ यदि कोई भी साधु नाथ में बैठकर आहार न करना चाहे तो अकेला ही यतनापूर्वक नौने नहीं गिराता हुआ चौड़े मूल दाले पात्र में आहार करे। गृहस्थ के लिए बना हुआ तीखा, कडुवा, कसैना, खट्टा, मीठा या बारा जो भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमी मुनि मधुघृत की भांति खाये। मुधाजीबी मुनि मुधालब्ध अरन या विरस, व्यंजन सहित या व्यंजन रहित, आई या गुरुक, मन्यु और कुल्माष इत्यादि प्राप्त बाहार की निन्दा न करे, वह आहार अल्प हो या पूर्ण हो दोषों का वर्जन करता हुआ खावे। अरसं बिरसं वा बि, सूइयं वा असइयं । उल्लं वा जइ वा सुक्क, मन्धु कुम्मास मोयणं । उत्पण्णं नाद होलेग्जा, अप्पं या बटु फासुयं । मुहाला मुहाजीवी, भुजेम्जा दोसवज्जियं ।। मुणी मायण्णो हवेज्ज मुनि आहार की मात्रा का ज्ञाता हो२. लखे आहारे अणगारो मायं जाणेजा । से जहेयं भगवतारजाहार प्राप्त होने पर अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान पवेदितं । - आ. सु. १, अ.२, उ. ५. सु. ८६ (ख) होना चाहिए । जिसका कि भगवान् ने निर्देश किया है। सलेव असेस आहार करण निद्देसो-- लेप सहित पूर्ण आहार करने का निर्देश ३. पडिागहं संलिहिताणं, लेब-मायाए मंजए। ३. संचमी मुनि पात्र के लगे लेप मात्र को भी पोंछकर राब दुगंधं वा सुगंध वा, सवं भुजे न छहए ॥ खा ले, शेष न छोड़े, भले फिर वह मन से प्रतिकूल हो या -दस, अ.५, उ, २, गा.१ अनुकूल । रसगिद्विणिसेहो-- रसगृद्धि का निषेध४. अलोले न रसे गिजे, जिवमादन्ते अमुछिए । ४. अलोलुप, रस में अगद्ध, जीभ का दमन करने वाला और न रसाए भंजिज्जा, जयणढाए महामुणी।। अभूच्छित महामुनि रस (स्वाद) के लिए न खाये. किन्तु जीवन -उत्त. अ. ३५, गा.१७ निर्वाह के लिए स्वाये । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा असणं वा-जाव-साइमं वा भिक्षु या भिक्षुगी अजन-यावत्- स्वाद्य क' आहार करते म्हारेमाणे-णो धामातो हण्यातो, दाहिणं हणुयं संधारेज्मा रामय स्वाद लेते हुए बाए जबड़े ने दाहिने जबड़े में न ले जाये आसाएमाणे, वाहिणातो वा हणुयातो वाहणुमं जो संचा- और स्वाद लेते हुए दाहिने जबड़े से बाये जबड़े में न ले जाये । रेज्जा आसाएमाणे। से अणासादमाणे लावियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णा- वह अगास्त्राद वृत्ति से लाघवता को प्राप्त होते हुए तप का गते भवति । सहज लाभ प्राप्त कर लेता है। जहेयं भगव्या पवेदितं तमेव अमिसमैच्चा सध्यतो सच्चयाए भगवान् ने जिम रूप में अस्वाद वृत्ति का प्रतिपादन किया सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा । है, उसे उसी रूप में जानकर सभी प्रकार से सर्वात्मना भली _ -आ. मु. १, ८, उ. ६. सु. २२३ भांति आचरण करे । आगंतुगसमण णिमंतणविही आगंतुक श्रमणों को निमन्त्रित करने की विधि५. से आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेस या अणुधीइ जाएज्जा, ५. साधु पथिकशालाओं -यावत् -परिव्राजकों के आवासों में जे तत्थ ईसरे, जे तत्य समहिवाए ते जगहं अणुण्य- उस स्थान के स्वामी की या संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करे । बेम्जा"काम खलु आउसो ! अहाल अहापरिषणायं बसामो-जाव- "हे. आयुष्मन् ! आप जितने स्थान में जितने समय तक आउसोजाब-आउसंतस्स उग्गहे-जाब-साहम्मिया एतार ताव ठहरने की काज्ञा देंगे हम और हमारे आने वाले स्वधर्मी उतने जग्गहं ओगिहिसामो, तेण परं विहरिस्सामो। ही स्थान में उतने ही समय तक ठहरेंगे बाद में विहार कर देंगे।"
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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