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________________ विमय मोक्ता मिक्ष चारित्राचार : एषणा समिति [६०३ से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? अवग्रह से अनुजापूर्वक ग्रहण कर लेने पर फिर वह साधु क्या करे? जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उरागच्छज्जा । जे वहाँ (निवामित साधु के पास कोई सार्मिक, साम्भोगिक तेण सयमेसिए असणे वा-जाथ-साइमे वा तेण ते साम्मिया एवं समनोज्ञ साधु अतिथि के रूप में आ जाये तो वह साधु स्वयं संभोइया समणुष्णा उणिमंतेया। आने द्वारा गवेषणा करके लाये हुए अशन-यावत् -स्वाद्य आहार को उन सार्मिक साम्भोगिक एवं समनोज साधुओं को सपनिमन्त्रित करे। यो चेव गं परिपडिपाए ओमिजिमय-ओगिक्षिय उपणि- किन्तु अन्य माधु द्वारा या अन्य रुग्णादि साधु के लिए मंतेजा। -अ.सु. २, अ.७, उ. १. गु. ६०८-६०६ लाये हुए आहारादि को लेकर उन्हें निमवित न करे। विगईभोई भिक्खू विगयभोक्ता भिक्षु१. दुखदहीविगईओ, आहारेइ अमिक्खणं । ६. जो दुध, दही आदि विकृतियों (विगयों) बा बार-बार अरए य तबोकम्मे, पावसमणे ति बुच्चई ।। आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता है, वह पाप -उस. म.१७, गर.१५ श्रमण कहलाता है। आयरिय-अदत्त-विगइं-भंजमाणस्स पायच्छित सुत्तं - बाचार्य के दिये विना विकृति भक्षण का प्रायश्चित्त ७. भिक्खू आरिप-उवनसाह अविदिषणं विगई आहारेइ, ७. जो भिनु आचार्य, उपाध्याय के दिये विना विगई का आहार आहारस वा साइज्जद। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजा मासियं परिहारट्ठागं उग्धाइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४. सु. २१ पाता है। पुणो भिक्खट्टा गमण विहाणो पुनः भिक्षार्थ जाने का विधानसेज्जा निसीहियाए समावन्नो य गोयरे। ८. मुनि उपाथय में या अन्य बैठने के स्थान में बैठकर गोचरी अयावया मोच्चा गं. जद तेणं न संथरे ॥ से प्राप्त आहार खाने पर भी उदरपूर्ति न होने पर अथवा अन्य सओ कारणमुप्पन्ने, भत्तपागं गयेसए । कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से या आगे कही जाने वाली विहिणा पुश्व-उत्तण, इमेणं उत्तरेण य॥ विधि से पुनः आहार पानी की गवेषणा करे । -दस. अ५. उ. २, गा. २-३ पुलागभत्ते पडिगाहिए भिक्खा-गमण विहि-णिसेहो- पुलाक भक्त ग्रहण हो जाने पर मोचरी जाने का विधि निषेध--- १. निग्गं थीए य गाहावहकुल पिणवामपडियाए अणुपविठ्ठाए . नियन्थी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और अन्नपरे पुलागभत्त' पडिग्गाडिए सिया, बहाँ यदि पुलागा भक्त (अत्यन्त मरस आहार) ग्रहण हो जाये । सा य संयरेज्जा, कप्पद मे तदिवस तेणेव भसढे पज्जो- यदि उस गृहीत आहार से निर्वाह हो जाये तो उस दिन समेत्तए, नो से कप्पा दोच्चं पि गाहावइकुलं पिण्डवाय- उसी आहार से रहे (निर्वाह करे) किन्तु दूसरी बार आहर के परियाए पविसित्ताए, लिए गृहस्थ के घर में न जावे । पुलाक भत्तं :विविहं होइ पुलागं, धणे गंधे य रसगुलाए य । .... .. .. .. ..... ... ... ... ... ... ..... || ६०४८ ॥ निष्फावाई धन्ना, गंधे माइग पलंडु लसुणाई। वीरं तु रस पुलाओ, चिचिणि दक्वारमाईया ॥ ६०४६ ।। आदि शब्दात् अपरमपि यद् भुक्त अतिसारयति तत् सर्वमपि ररा पुलाकम् । उपरोक्त सूत्र में रस पुलाक की उपेक्षा से अर्थ समझना चाहिए।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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