SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 699
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र १३६-१६२ हेमन्त और पीएम में वस्त्र ग्रहण करने का विधान चारित्राचार : एषणा समिति [६६७ बत्यं ते ओबद्ध सिया-कंबले घा-जाव-रपणावली वा पाणे कदाचित उस वस्त्र के सरे पर कुछ बंधा हो, यथा-कुण्डल वा, बोए वा, हरिए बा। बंधा हो,-यावत्-रत्नों की माला बंधी हो, अथवा प्राणी, बीज या हरी वनस्पति बंधी हो। अह भिक्खूर्ण पुख्योबविट्ठा-जाब-एस उपएसे, अं पुथ्यामेव अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकर आदि आप्त पुरुषों ने पहले वस्थं अंतो अंतेणं पडिलेहेग्जा। से ही ऐसी प्रतिज्ञा यावत् -उपदेश दिपा है कि साधु वस्त्र -आ. सु. २, अ. ५, उ.१, सु.५६८ ग्रहण करने से पहले ही उस वस्त्र की अन्दर-वाहर चारों ओर से प्रतिलेखना करे। हेमंत-गिम्हासु वत्थ गहण विहाणं हेमन्त और ग्रीष्म में वस्त्र ग्रहण करने का विधान१६०, कप्पा निग्गंधाण या, नियंथीण वा बोच्नसमोसरणुद्द- १६०. निर्ग्रन्थों और निग्रन्थियों को द्वितीय समवसरग (हेमन्त संपत्ताईसाई पग्गिाहेत्तए।' -कप्प. उ. ३, सु. १७ और ग्रीष्म) में वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है । पम्यज्जापरियाय कमेण वस्थ गहण विहाणं- प्रवज्या पर्याय के क्रम से वस्त्र ग्रहण का विधान१६१. कप्पद निगंथाण वा, निमग्रंथीम था अहाराणियाए चेलाई १६१. निर्ग्रन्थों और नियन्थियों को चारित्र पर्याय के क्रम से वस्त्र पढिगाहित्तए। -कप्प. उ. ३, सु. १८ प्रहण करना कल्पता है। निग्रन्थ को वस्त्रषणा-विधि-१ [२] णिग्गंथाणं वस्थाह एसणा विही निर्ग्रन्थों की वस्त्रंषणा विधि१६२. निर्गय व णं गाहाकुलं पिबवामपणियाए अनुपविट्ट का १६२. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को यदि वत्पेण या पडिग्गाहेण वा, कवलेण वा, पायपुंछणे ण वा कोई बस्त्र, पात्र, कम्बल, पादनोंछन लेने के लिए कहे तो वस्त्रादि उनिमंतेजा, कप्पड़ से सागारकडं गहाय लायरियपायमूले को ''सागारकृत" ग्रहण कर, उन्हें आचार्य के चरणों में रखकर स्वेत्ता, दोच्च पि उमगह अण्णवित्ता परिहारं परिहरिप्सए। तथा उसे ग्रहण करने के लिए आचार्य से दूसरी बार आज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। निग्गयं च बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि या, विचार भूमि मल-मूत्र विसर्जन स्थान) या विहारभूमि निपखंत समाण, केह वस्थेण वा, परिगहण वा, कंशलेण वा, (स्वाध्याय भूमि) के लिए (गाय से) बाहर निकले हुए निर्ग्रन्थ पायपुंछणेण वा, उनिमंतेग्जा, कप्पड़ मे सागारकडं गहाय को यदि कोई वस्त्र, पात्रा, कम्बल, पादपोंछन लेने के लिए कहे आयरियपायमूले वित्ता दोस्व पि उगह अणुण्णवित्ता तो बस्त्रादि को "सागारकृत" ग्रहण करे उसे आचार्य के चरणों परिहारं परिरित्तए। - वप्प. उ. १, मु. ४०-४१ में रखकर तथा उसे ग्रहण करने के लिए आचार्य से दूसरी बार आज्ञा लेकर अपने पास रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। १ एक वर्ष के दो विभाग हैं एक वर्षावास काल और दूसरा ऋतुबद्ध काल । वर्षावास काल में भिक्षु-भिक्षुणियां चार मास तक विहार नहीं करते हैं। जहां वर्षावास करने का उनका संकल्प होता है वहीं रहते हैं। ____ ऋतुबद्धकाल में अपने अपने कल्प के अनुसार भिक्षु-भिक्षुणियाँ विहार करते रहते हैं इसलिए वर्षावास को प्रथम समवसरण और ऋतुबद्धकाल को द्वितीय समयसरण कहा गया है। -बृहत्कल्प भाष्य गा. ४२४२ च ४२६७ ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy