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सूत्र २१७-२२१
दर्शनप्राप्ति के लिए अनुकूल काल
वर्शनाचार
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जस्स सरिसणावरगिजाणं कम्माणं खोषसमे नो जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह कर मवइ, से गं असोच्दा केलिस्स ना-जान-तप्प- केवली से - पावत्-केवलीपाक्षिक उपामिका से बिना सुने क्लियउवासिवाए वा केवलं बोहि नो बुज्झना। बोधि को प्राप्त नहीं कर सकता है।
–वि. श. ६, उ. ३१, सु. ३२ दसणलाभाणुकूलो कालो
दर्शनप्राप्ति के लिए अनुकूल काल२१७. तओ जामा पण्णता, तं जहा
२१५. तीन याम (प्रहर) कहे हैं, यथापढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे,
प्रथम याम, मध्यम याम, अन्तिम याम । तिहि जामेहि आया केबलं मोहिं बुनमज्जा,
तीन यामों में आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता है, पहमे आमे, मजिसमे जामे, पच्छिमे जामे ।
प्रश्रम याम, मध्यम याम, और अन्तिम याम । -ठाणं. अ. ३, उ. २, मु. १६३ दसणलाभाणुकूला धया
दर्शन प्राप्ति के लिए अनुकूल वय२१८, तओ वया पणत्ता, तं जहा
२१८. तीन जय बहे हैं, यथापढमे वए, मजिनमे यए, पच्छिमें वए।
प्रथम वय, मध्यम वय, अन्तिम वय । तिहि वएहि आया केवलं बोहि बुझज्जा
तीन वय में आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता हैपहमे पए, मजिामे वए, पस्छिमे बए ।
प्रथम वय, मध्यम बय और अन्तिम वय । -ठाणं, अ, ३, प. २, सु. १६३ छसु दिसास दसणालाभो
दर्णन प्राप्ति के लिए अनुकुल दिशाएं११६. छहिसाओ पणताओ, तं जहा-..
२१६. छः दिशाएँ कहीं हैं. यथापाईणा, पडीणा, दाहिणा. उबीणा उनका, अहा .
पूर्व पश्चिम, दक्षिण, उनर, ऊवं और अधो । छहिं दिसाहि जीवाणं दंसणाभिगमे।
इन छः दिशाओं में जीवों को दर्शन (सम्यक्स्य) की प्राप्ति
-ठाणं. अ. ६, मु. ४६६ होती है। पंच दुल्लहबोही जीवा .
पाँच दुर्लभबोधि जीव २२०. पंचहि ठाणेहि जीवा बुल्लमबोधियत्ताए कम्म पकरेंति, २२०. पाँच कारणों से जीव दुर्लभबोधि करने वाले (जिनधर्म तं जहा -
की प्राप्ति को दुर्लभ बनाने वाले) मोहनीय आदि कर्मों का उपा
जन करते हैं। जैसेअरहताण अवणं बदमाणे,
(१) अर्हन्तों का अवर्णवाद करता हुआ। अरहतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवां वरमाणे,
(२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता हुआ। आयरियउबनायाणं अवष्णं ववमाणे,
(३) आचार्य उपाध्याय का अवर्णवार करता हुआ। चाउवण्णस्स संघस्स अवष्णं बदमाणे,
(४) चतुर्वर्ण (चतुविध) संघ का अवर्णवाद करता हुआ। विवक्कतवयंभचेराण घेवाणं अवष्णं बदमाणे ।
(५) तप और ब्रह्मचर्य के परिपाक से दिव्य गति को प्राप्त - ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४२६ देवों का अवर्णवाद करता हुआ । पंच सुलहबोही जीवा
पांच सुलभबोधि जीव२२१. पंचहि ठाणेहि जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्म पकरेंति, २२१. पाँच कारणों से जीत्र मुलभबोधि करने वाले कर्म का तं जहा
पार्जन कनता है । जैसेअरहंतागं वरुणं बदमाणे,
(१) अर्हन्तों का वर्णवाद (सद्गुणोभावन) करता हुआ। अरहतपण्णतस्स धम्मस्त वणं ववमाणे,
(२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद करता हुआ। आरिय उबज्मायाणं वग्णं वबमाणे,
(३) भावार्य-उपाध्याय का वर्णवाद करता हुआ । नाउवाणस संघस्स वष्णं व.माणे,
(४) चतुर्वणं (चतुर्विध) संघ का वर्णवाद करता हुआ। विववक-तम-बमचेराणं वेवाणं वष्ण बदमाणे ।
(५) तप और ब्रह्मचर्य के विपाक रो दिव्यगति को प्राप्त - ठाण. अ, ५, उ. २, सु. ४२६ देवों का वर्णवाद करता हुआ।