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________________ १३०] चरणानुयोग तोन दुर्योज्य : तीन सुबोध्य सूत्र २२२-२२४ मा। तओ दुर्बोध्या तीन दुर्बोध्य२२२. तओ दुसराणया पण्णता, तं जहा-- २२२. तीन दुःसंजाप्य (दुर्योध्य) कहे गये हैंबुट्छे, (३) दुष्ट-तत्वोपदेष्टा के प्रति द्वेष रहने वाला, मूठे, (२) मूढ- गुण और दोषों से अनभिज्ञ, बुगाहिते' (३) व्युमाहित-अंधश्रद्धा वाचा दुराग्रही । तओ सुबोध्या तीन सुबोध्य२२३. तो सुसम्णप्पा पण्णता, तं जहा २२३, तीन सुमंज्ञाध्य (सुबोध्य) कहे गये हैंअवुद्ध, (१) अदुष्ट-- तत्वोपदेष्टा के प्रति द्वेष न रखने वाला, अमूढे, (२) अमूर—गुण और दोषों का ज्ञाता, अागाहिते। -ठाणे. अ, ३, उ.४, सु. २०४ (३) अच्युद्गाहित-सम्यकः श्रद्धावाला। सुल्लहबोही-दुल्लहबोही य-- सुलभ बोधि और दुर्लभ बोधि२२४. इसो विसमाणस, पुणो संबोहि दुल्समा । २२४. जो जीव इस मनुष्यभव (या शरीर) से भ्रष्ट हो जाता है, दुल्लमा उ तहल्या गं, जे धम्म? विषागरे । उसे पूनः जन्मान्तर में सम्बोधि (सम्यग्दृष्टि) का प्राप्ति होना -सुय, सु. १, अ. १५, गा.१८ अत्यन्त दुर्लभ है। जो साधक धर्मरूप पदार्थ की व्याख्या करते हैं, अथवा धन प्राप्ति के योग्य हैं, उनको तथाभूत अर्चा (सम्मादर्शनादि प्राप्ति के योग्य शुम लेश्या अन्तःकरणपरिणति, अथवा सम्यग्दर्शन-प्राप्तियोग्य तेजस्त्री मनुष्यदेह) (जिसने पूर्वजन्म में धर्म-बोध नहीं पाया है, उन्हें) प्राप्त होनी अति दुर्लभ हैं। इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं बोहि चाहियं । जानादि सम्पन्न या म्बहिसषी मनि इस प्रकार विचार करे एवं सहिएऽहिपासए, आह जिणे इणमेव सेसगा। कि यही क्षण (बोधि प्राप्ति का) अवसर है, वोधि (मम्यग्दर्शन) --मुय. म. १, अ. २, उ. ३, गा. १९ दुर्लभ है ऐसा जिन--राग-दीप विजेता ने और शेष तीर्थकों ने कहा है। इह जीवियं अणियमेसा, पम्भट्ठा समाहिजोगेहि । जो थमण काम, भोग और रसों में मृद्ध है वे हम जीवन में ते काम-भोगरसगिडा, उपयज्जति आसुरे काये। अनियन्त्रित रहकर और समाधियोग से भ्रष्ट होकर आसुर काय में उत्पन्न होते हैं। तत्तो वि य उवट्टित्ता, संसारे बहु अणुपरियति । (बहुत कर्मों के लेप से लिप्त) वे बहाँ मे भी निकलकर बहुकम्मलेवलित्तागं , बोहि होहि सुदुल्लहा तेसि ॥ संसार में बहुत परिभ्रमण करते हैं, उन्हें बोधि की प्राप्ति महान -उस. अ. ८, गा. १४-१४ दुर्लभ हैं। मिच्छामणरता , सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। इस प्रकार जो जीव भिय्यादर्णन में अनुरक्त, निदान सहित हय जे मरति जीवा, तेसिं पुण तुरुलहा बोहो॥ (धर्म) क्रिया करने वाले और कृष्णलेश्या युक्त हो मरते हैं उन्हें पुनः बोधि प्राप्त होना महान् दुर्लभ है। सम्मईसणरत्ता , अमियाणा सुक्कलेसमोगाहा। मम्यग्दर्शन में अनुरक्त, निदानरहित (धर्म) क्रिया करने इय जे मरंति जीवा, तेसि मुलहा भवे शेही ।। वाले, और शुक्ललेश्या युक्त जो जीव मरते है, उन्हें बोधि प्राप्त होना सुलभ है। मिछाबसणरता , सनियाणा ए हिसगा। जो जीव (अन्तिम समय में) मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान इय जै मरंति जीवा, तेसि पुण दुल्लहा बोहो ॥ से युक्त और हिंसक होकर मरते हैं, उन्हें बोधि दुर्लभ होती है। -उत्त. अ. ३६, गा. २५७-२५६ १ कप्प. उ. ४, सु. १२। २ कप, उ. ४, सु. १३ ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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