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________________ ५.६४ घरणानुयोग अशनादि के न मिलने पर क्रोध करने का निषेध भूत्र ६२१ (११) पूर्व-पश्चात्संस्तव - आहार ग्रहण करने के पहले या पीछे दाता की या अपनी प्रशंसा करना । (१२) दिशा-बिसी लिये पग में माहापानि लेना अथवा किसी विद्या की सिद्धि का प्रयोग बताकर आहारादि लेना। (१३) मन्त्र-किसी नन्त्र प्रयोग से आहारादि लेना अथवा किसी मन्त्र की सिद्धि की विधि बताकर आहारादि लेना। (१४) चूर्ण -वशीकरण का प्रयोग करके महारादि लेना अथवा वशीकरण का प्रयोग बताकर आहार दि लेना । (१५) योग–पोन विद्या के प्रयोग दिखाकर आहारादि लेना, अथवा योन विद्या के प्रयोग सिखाकर आहारादि लेना। (१६) भूलकर्म-गर्भपात के प्रयोग बताकर आहारादि लेना। अन्तर्धान पिक-अहाट विद्या आदि के प्रयोग से अदृष्ट रहकर आहारादि लेगा। निशीथ उद्देशक १३ में धात्री आदि उत्पादन दोषों के प्रायश्चित्तों का विधान है । पिण्डनियुक्ति में प्रतिपादित उत्पादन दोषों में तथा निशीथ प्रतिपास्ति उत्पादन दोषों में क्रम भेद, संख्या भेद और पाठ भेद है। पिण्ड नियुक्ति में १६ भेद हैं और निशीथ में १५ भेद हैं। पिण्डनियुक्ति में अन्तर्धानपिण्ड नहीं है, निशीथ में है । पिण्डनियुक्ति में मूलकर्म है, निशीष में नहीं है। पिण्डनियुक्ति में पूर्व पश्चात् संस्तव है, निशीथ में नहीं है। (१) कोपपिड बोसं (१) कोपपिड दोष-- असणाइ अलाभे कोव-णिसेहो अशनादि के न मिलने पर क्रोध करने का निषेध-- १२१. एस वीरे पसंसिते जे गणिरियन्नति आदाणाए, १२१. बहू वीर प्रशंसनीय है जो भिक्षा अप्राप्ति में उद्विग्न नहीं होता है। ण मे वैति ण कुप्पेषजा, "मह मुझे भिक्षा नहीं देता" ऐसा सोचकर कुपित नहीं होता है। थोवं लन्धुण खिसए। थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निन्दा नहीं करता है। परिसेहितो परिणमेम्जा। दाता द्वारा प्रतिषेध करने पर वापस लौट जाता है। एतं मोणं समजुवालेज्जासि । मुनि इस मौन (मुनि ध) का भली भांति पालन करे। -आ. सु. १, भ.२,उ. ४, सु, ८६ बाई परघरे अस्थि, विविहं लाइम-साइमं । गृहस्थ के घर में नाना प्रकार का प्रचुर वाद्य-स्वाद्य होता न तस्य पंडिओ कुप्पे, इच्छा रेज्ज परोन वा ॥ है, (किन्तु न देने पर) पण्डित मुनि कोप न करे। (यो चिन्तन करे कि) "इसकी अपनी इन्छा है. दे या न दे।" सपणासणवत्यं वा, भत्त-पाणं व संजए। संयमी भुमि सामने दीख रहे गयन, वस्त्र, भोजन या पानी अदेतस्स न कुम्पेम्जा, पध्यक्खे जिय बोसओ।' आदि न देने वाले पर भी कोप न करे। -दस . १. ५. उ. २, गा. २७-२८ लहवित्ती सुसंतुठे, अम्पिच्छे सुहरे सिया। मुनि रूक्षवृत्ति, सुसंतुष्ट, अल्प इच्छा वाला और अल्प आमुरतं न गच्छेज्जा, सोच्चा चं जिणसासणं ॥ आहार से तृप्त होने वाला हो। वह जिन शासन को मुनकर -दस. अ.८, गा. २५ समझकर (अलाभ होने पर। क्रोध न करें । तुलना के लिए देखिए१ सयणासण-पाण-भोयणं, विविहं खाइमं साइमं परेमि । अदए पडिसेहिए नियठे, जे तत्थ न पउस्सई स भिक्लू ।। - उत्त.ज.५. गा. ११ २ इन गाथाओं में आहार न मिलने पर क्रोध न करने का विधान है वास्तव में ऋपिण्ड की ब्यास्था निशीथणि और पिण्ड नियुक्ति में ही दी गई है। क्रोध-पिण्ड के प्रकार और उदाहरण आदि देखिए -गि, चुणि गा. ४४३६-४४४३ -पिण्डनियुक्ति गथा ४६१-४६४
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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