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________________ २१० वरणानुयोग पांच संबरवारों का प्ररूपण पत्र ३.५-३०६ ज०-हंता उहाति। उ०-हाँ, भगवन् ! पानी के ऊपर आ जाती है। एवामेव मंजियपुसा | असत्तासजस अणगारक्स हे मण्डितपुष ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्मा में दरियासमियस्स.जाव-गुत्तबंभयारिस्स, संवृत हुए, ईयर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त, आउत्तं गम्छमागस्स चिट्ठमाण समागम या मन कर बाले, ठहरने वाले, बैठने वाले, माणस्स, करवट बदलने वाले तथा आउत्तं वस्य-पडिग्गह-कंबल-पारपुछणं गेण्हमाणस्त उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोन्छन, (रजोहरण) निक्खिवमाणस्स-जाव-चपलपम्हनिदायमवि माया आदि धर्मोपकरणों को सावधानी (उपयोग) के साथ उठाने और सुहमा इरियावहिया किरिया-कजई । रखने वाले अनगार को भी अक्षिनिमेव मात्र समय में विगात्रा पूर्वक सूक्ष्म ईपिथिकी क्रिया लगती है। सा पढमसमयबद्धपुट्ठा मितियसमयवेतिता ततिपसमश- बह प्रथम समय में बध्द-स्पृष्ट द्वितीय समय में वेदित और निज्जरिया, सा बढापुटा उदोरिया वेदिया निजिष्णा तृतीय समय में निर्जीण (क्षीण) हो जाता है। वह बद्ध-स्पृष्ट सेयकाले अकम्मं घावि भवति । उदीरित-बेदित एवं निजीणं क्रिया भविष्यत्कास में अकर्मरूप भी हो जाती है। से तेगडे गं मंजियपुत्ता I एवं दम्वति-जावं च गं से इसी कारण से हे मण्डितपुत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब जीये सया समितं नो एत्ति-जाव-सायं च में तस्स यह जीव सदा समितरूप से भी कम्पित नहीं होता,-यावत - जीयस्स आहे अंसकिरिया भवति । उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब अन्तिम समय में _ वि. स. ३, उ. ३, सु. ११-१४ उसकी अन्तपिया हो जाती है। पंच संवरवार परुवर्ण पांच संवरद्वारों का प्ररूपण३.६. अं! २०६. श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! एसो म संवरबारा, पंच वोल्छामि आणयिए। अब मैं पांच संघरद्वारों को अनुक्रम से कहूँगा, जिसे भगवान् जह मणियाणि भगवया, सम्वनुक्सविमोक्खणट्टाए ॥ ने सर्वदुःखों से मुक्ति पाने के लिए कहे हैं, पहम होई अहिंसा, विड्यं सच्चवर्ण ति पणतं । (इन पाँच संवरद्वारों) में प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन बसमगुण्णाय संबरो य, बंमचेरमपरिगहतं च ॥ है, तीसरा स्वामी की आज्ञा से दत्त (अदत्तादानविरमण) है। चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रहत्य है । १ (क) ५०-अस्थि णं भंते ! जीवा ए पोग्गला य अन्नमत्रबद्धा अनमन्नपुरा अन्नमनमोगाढा अनमनसिहपडिबद्धा अन्न मन्नघटत्ताए चिट्ठन्ति ? उ०.-हंता, अस्थि । ५०-से केणटुणं भंते !-जाव-चिन्ति ? उ०-गोयमा ! से जहानामए हरदे सिया पुण्णे पुष्णणमाणे वोलढमाणे बोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठति, प०-अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नाव सदासर्व साइडर्ड ओगाहेज्जा । से नूगं गोपमा ! सा णावा तेहि आसवहारहि आपूरमाणी आपुरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरपडताए चिति ? उ-हता चिट्ठति । __से तेणठेणं गोयमा अत्यि णं जीवा य पोग्गलाय-जाव-अन्नमनघडताए चिठन्ति । ...वि. स.१, उ. ६, सु. २६ (ख) सूय. सु. १, अ. १, उ. २, गा. ३१ । (ग) उत्त. अ. २३, गा. ७०-७३ । २ (क) पंच महन्यया पण्णत्ता, तं जहा-१. सब्बाओ पाणातिदायाओ वेरमणं, २. सवालो मुसावायाओ बेरमणं, ३. सन्चाओ नाविण्णादाणाओ बेरमणं, ४. सब्बाओ मेहुणाओ वेरमण, ५. सब्बाओ परिगहाओ बेरमणं ।-ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३८६ (शेष अगले पृष्ठ पर)
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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