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हामि ! महयवाई लोपहियसत्यसाई
सागर सिवाई, तब संजममध्वाई सीखगुणवरम्याई राजा
गर- तिरियम-देवगड-विजगाई सम्माजिसाणा, कम्मरयविकारा
सगाई, माविमोयणदाई
सयपयत्तणगाई,
पुरिससराई सम्पुरिसणीसेवियाई
विश्वासयन्यायपा
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संगरवाराई पंच कहियाणि उ भगयया । - पण्ह. सु. २, अ. १, सु. १ एयाई क्याई पंचवि मुख्य-महत्या हेउसय विविपुरुखलाई कहियाई,
अरहंतलास समासेण पंच बरा,
विश्परेण उ पणवीसंति,
पाँच संवरद्वारों का प्ररूपण
[२११
श्री
!
स्वामी ने अपने अन्तेवासी जम्मू स्वामी से कहाहे सुबत ! अर्थात् उत्तम व्रतों के धारक और पालक जम्बू पूर्व में नाम किया जा चुका है ऐसे महात समस्त लीक के हितकारी है या नोक का सहित करने वाले हैं। तरुणी बागर (आम) में इनका उपदेश किया गया है। महावतों में शील का और सर और आनं
ये तप और संगमरूप व्रत हैं। इन उत्तम गुणों का समूह निहित है सरलता - निष्कपटता इनमें प्रधान है।
(घ) उत्त. अ. २३, गा. ८७
(छ) सूय. सु. २, अ. ६, गा. ६
चारित्राचार
ये महाव्रत नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बनाने वाले हैं—युक्ति प्रदाता है। समसा जिनों तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट है। कर्मरूपी रज का विचार करने वाले अर्थात् क्षय करने वाले हैं ।
सैकड़ों भजन्म-मरणों का अन्त करने वाले हैं। मै दुःखों से बचाने वाले हैं। सैकड़ों सुखों में प्रवृत्त करने वाले हैं। ये महाव्रत कायरपुरुषों के लिए दुस्तर हैं, सत्पुरुषों द्वारा सेवित हैं,
ये मोक्ष में जाने के मार्ग हैं, स्वर्ग में पहुँचाने वाले हैं।
इस प्रकार के ये महाव्रत रूप पाँच संवरद्वार भगवान् महावीर ने कहे हैं।
हे सुव्रत ! ये पाँच संवररूप महाव्रत सैकड़ों हेतुओं से पुष्कल विस्तृत है।
अरिहंत शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में (पाँच) कहे गए हैं। विस्तार से प्रत्येक को पांच-पांच भावनाएँ होने से इनके पच्ची प्रकार होते हैं ।
(शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का )
(ख) पंचभरात यहा १ पापाइलामात्र वेरमण, २. मुसावानाओ पेरम १. अभिदानाओ बेरम
४. मेहुणाओ वेरमण, ५. परिग्गहाओ वेरमणं ।
--- सम. ५, सु. १
(ग) तनहिल
अम्भव
- उत्स. अ. ३५, गा. ३ (च) आव. अ. ४, सु. २४ ( ३ ) (अ) दस. अ. ६. गा. ८-२१
और निर्भय की परिभाषा के
(ब) स्था. अ. ५, उ. २, सु. ४१८ तथा सम. ५ में पांच संवर के नाम हैं किन्तु वे सम्यक्त्व, विरति अकषाय, अप्रमाद और अयोग हैं। पाँच निर्जरास्थान, पांच महाव्रत या पांच नंबर उक्त पांच के अन्तर्गत "विरति" में समाविष्ट हो जाते है। संवर अनुसार प्राणातिपातविश्मय आदि पांच संबर भी है और निस्थान भी है। सु. २.१.१ के भा आदि ५ संजरों के कतिपय विशेषण है। उनमें नरकादि चार गतियों का विदर्जन और निर्वाण एवं देवगति की प्राप्ति पांच संदरों की आराधना का फल कहा गया है। जहाँ देवगति विवर्जन है वहाँ अशुभ की निर्जरा होने से शुभ मनुष्य
में
देवगति का विवर्जन है। निर्वान गति की अपेक्षा ये पांच निवेश स्थान है यति या शुभ देवगति दाता है।
सोमं च संजम परिव (ङ) - सूय. सु. १, अ. १६, सु. ६३५, (ज) दस. अ. १३, गा. ११