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________________ ६२] परणानुयोग काल प्रतिलेखना का फल सूत्र६३-६६ पढमो कालणाणायारो प्रथम काल-ज्ञानाचार कालपडिलेहणा फलं काल प्रतिलेखना का फल६३.५०—कालपरिहणपाए जं भंते ! जीवे किं नणया? १३. प्र०-भन्से ! काल-प्रतिलेखना (स्वाध्याय आदि के उपयुक्त समय का ज्ञान करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ...कालपडिलेहणयाए नाणावरणिन्ज कम्म बेट। उ०-काल-प्रतिलेखना से बह ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण -उत्त. अ. २६ सु. १७ करता है। सज्झायकालस्स पडिलेहणं-- स्वाध्याय काल-प्रतिलेखना६४. विवसस्स चउरो भागे, कुज्जा मिवयू वियकखणे । १४. विपक्षण भिक्षु दिन के चार भाग करे। उन चारों भागों तओ उत्तरगुणे कुज्जा, विणभागेसु उसु वि॥११॥ में उत्सर-गुणों (स्वाध्याय आदि) को माराधना करे। जं ने जया रति, नकबत्तं तंमि तह चउभागे। जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह (नक्षत्र) जव संपत्ते विरमेउजा, सम्साय पओसकालम्मि ॥१६॥ आकाश के चतुर्थ भाग में आए (प्रथम प्रहर समाप्त हो) तब प्रदोष काल (रात्रि के प्रारम्म) में प्रारब्ध स्वाध्याय से विरत हो जाए। तम्मेव य नक्षत्ते, गयण चजम्मागसायसेसंमि । वही नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में शेष रहे तथ वेरतियं पि कालं, पहिलेहिणा मुणो कुज्जा ॥२०॥ वैरानिक काल (रात का चतुर्थ प्रहर) आया हुआ जानकर फिर -उत्त अ. २६ स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाय । सज्माय-माणाइ फाल विवेगो स्वाध्याय ध्यानादि का काल विवेक६५. पढम पोरिसिं सम्माय, बीयं मागं लियायई । १५. प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे में ध्यान करे। तीसर सइयाए मिक्खारिय, पुणो चउस्यीए समायं ।। में भिक्षाचरी और चौधे में पुनः स्वाध्याय करे । -उत्त. अ. २६, गा. १२ पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पखिलहिया । चौथे प्रहर में काल की प्रतिलेखना कर असंयत व्यक्तियों ससायं तु तो कुज्जा, अबोहेन्तो असंजए॥ को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे । -उत्त, अ. २६, गा. ४४ णिगंथाणं विइगिद्रकाले सज्मायकाल निसेहो व्यतिकृष्ट काल में निर्ग्रन्थों के लिए स्वाध्याय निषेध-- १६. नो कप्पा निवागं विइगिट्ठ काले समायं उद्दिसित्तए ६६. निग्रंन्यों का व्यतिकृष्टकाल (विपरीत काल-कालिक आगम बा करेत्तए था। को स्वाध्याय काल में उत्कालिक आगम का स्वाध्याय करना -बव, उ. ७, सु. १४ तथा उत्कालिक आमम के स्वाध्यायकाल में कालिक आगम का स्वाध्याय करना) में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है। १ (क) कालप्रतिलेखना-यह काल किस क्रिया के करने का है ? यह निरीक्षण करना काल-प्रतिलेखना है। (ख) प्रमाद रहित साधक काल-प्रतिलेखना से स्वाध्याय का काल जानकर स्वाध्याय करे तो उसे जानावरणीय कर्म का क्षय होता है। (ग) आवश्यक अ. ४ में काल-प्रतिलेखना सूप में काम के अतिक्रम आदि दोषों की शुद्धि का पाठ है । २ व्यतिकृष्ट काल दो प्रकार का है—१. कालिक व्यतिकृष्ट, २. उल्कालिक व्यतिकृष्ट । कालिक यतिकृष्ट —दिवस और रात्रि के प्रथम तथा चतुर्थ प्रहर को छोड़कर वितीय और तृतीय प्रहर में कालिक आगमों का अध्ययन कराना एवं स्वाध्याय करना। उत्कालिक व्यतिकृष्ट-चार सन्ध्याओं में उत्कालिक आगमों का अध्ययन कराना तथा स्वाध्याय करना । कालिक और उत्कालिक आगमों की संख्या श्रुत शान के विभाग में देखें।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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