SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 577
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ८७४-०७५ स काले परे भिक्यू. कुल्मा पुरिसकारि अलाभो प्ति न सीएज्जा तयो ति अहियासए । गवाकाल में खड़े रहने की विधि गणका fugeाई विही८०४. असंससं पलोएज्जा, - दस. अ. ५. उ. २, गा. ४-६ महज तप ही सही" यो मानकर भूख को सहन करे । गवेषणाकाल में खड़े रहने आदि की विधि भारावसोए । उत्फुल्लं न विणिक्झाए नियट्टेज्ज अयंपिरो । गोवरग्यगओ सुणी अइभूमिं न गच्छेज्जा कुलस्स भूमि जाणित्ता सत्येन मियं भूमि पर कमे । भूमिभाव। सिणाणस्य वचस्स संलोगं परिवज्जए ॥ मयाब हरियाण परिवता सम्मिदिवसमाहिए। सत्य से चिमाणसा आहरेपण भो निष्पडित कम्पियं चारित्राचार एवमा समिति समनाई पेहाए चिट्ठण-सही भिक्षु भिक्षा लाने का समय होने पर भिक्षा के लिए जाए और पुरुषार्थ करे. भिक्षा न मिलने पर खेद न करे, "बज 1xxxx ८७४. गोचरी में प्रविष्ट मुनि अनासक्त दृष्टि से देखें । अति दूर न देखे, उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे । भिक्षा का निषेध करने पर बिना कुछ कहे वापस चला जाये । गोधरी के लिए घर में प्रविष्ट मुनि अति-भूमि में न जांब, कुल भूमि को जानकर मित-भूमि में प्रवेश करे। क्षण मुनि मित-भूमि में ही उनित भू-भाग का प्रति लेखन करे । जहाँ से स्नान और शव का धान दिखाई पड़े उस भूमि-भाग का परिवर्जन करे । - दस अ. ५, ३१, गा. २३-२७ कल्पनीय ही ग्रहण करें । सर्वेन्द्रिय समाहित मुनि उदक और मिट्टी लाने के मार्ग तथा बीज और हरियाली को बजंकर खड़ा रहे । हुए उसको देने के लिए महारानी ए तो उसमें से अकल्पनीय को ग्रहण करने की इच्छा न करे, वहाँ श्रमण आदि का देखकर खड़े रहने की और प्रवेश की विधि ८७५. से भिक्खू वा, भिक्खुणी या गाहाबद्दकुलं पिडवायपडियाए ८७५. भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अपट्टि समाणे से अं पुण जाणेज्जाकरे उस समय यदि यह जाने कि समणं या मातृणं वा गामपिटोलगं वा मतिहि या युष्वपट्टि पेहाए गोते खातिकम्म पविसेज्ज वा. ओमासेज्ज वर । से समाए एगमनकयेज्जा एगतमवक्कमित्ता वाणानामलोए चिट्ठज्जा ।" बहुत से शाक्यादि श्रमण ब्राह्मण, दरिद्र, अतिथि और याचक आदि उस गृहस्थ के यहाँ पहले से ही प्रवेश किये हुए हैंतो उन्हें लांघकर न प्रवेश करे और न आहार की याचना करे । वह उन श्रमणादि को भिक्षार्थ उपस्थित) जानकर एकान्त स्थान में चला जाये, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो और देखता न हो, इस प्रकार खड़ा रहे । इसलिए प्राचीन काल में सर्वत्र सभी अपरान्होजी ही मे (ग) श्रमणों की भिक्षाचर्या का काम दिन पर यह कई विचारकों का मत है; किन्तु जैनागमों में गृहस्थों के लिए भी प्रातराशन- - प्रातः काल का भोजन तथा श्यामाशनसायंकाल का भोजन का उल्लेख मिलता है। यथा साभासाए पातरासाए आ. सु. १, अ. २. उ. ५, सु. ८७ सूम. सु. २. अ. १, सु. ६८८ (घ) एक दिन में दो बार भोजन भरत चक्रवर्ती के समय में भी किया जाता था, क्योंकि स्वयं भरत चक्रवर्ती ने दिग्विजय यात्रा में "अष्टम भक्त" किए देखिए दीप प्रप्ति वश ३ टीका एकस्मिन् दिने द्विवार भोजनोजिसन दिनत्रयस्य षणं भक्तानामुत्तर-पारण क दिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च त्यागेनाष्टमभक्तं त्याज्यम् । १ (क) समणं माणं वा, वि किविणं वा वणीमगं । उवसकमंत भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए ॥ अमिन पविसे न चिट्ठे चक्खु -गोयरे । एवंतमवकमिता, तत्थ निट्ट ज्ज संजए || वणीमगरस वा तस्स दायगरसुभयस्स वा । अप्पत्तियं सिया होज्जा, लहुत्तं पदयणस्स वा ।। (स) मरणाममा एमोभितट्टा चित्ततं वाइन - इस. अ. ५, उ. २, गा. १०-१२ -उस. अ. १, गा. ३३
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy