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________________ २४५] परणानुयोग .: जोधनिकाय को हिंसा का परिणाम सूत्र ३४८-३५. उ.--जयं घरे जयं चिट्ठो जयमासे जयं सए। जयं मुंजतो भासंती, पावं कम्मं न अंधई। सबभूयप्पभूयस्स ।सम्म भूयाइ पासओ। पिहियासवस्म तस्स, पावं कम्मं न बंधई॥ -दस. अ. ४, गा, २४-३२ छज्जीवणिकायवह-परिणाम३४६. गम्भाइ मिति खुपा मुयाणा, गरा परे पंचसिहा कुमारा। बुवाणया महिम घेरगा य, चयंति से आउखए पलोणा॥ उ.-यतनापूर्वक चलने, यतनापूर्वक खड़े होने, यतनापूर्वक बैटने, पतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक स्त्राने, और यतनापूर्वक बोलने बाला पाप-कर्म का बन्ध नहीं करता है। जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक दृष्टि से देखता है, जो मानव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। छः जीवनिकाय की हिंसा का परिणाम३४६. (देवी-देवों की अर्चा या धर्म के नाम पर अथवा सुस-वृद्धि आदि किसी कारण से जीवों का छेदन-भेदन करने वाले) मनुष्य गर्भ में ही मर जाते हैं तथा कई तो स्पष्ट बोलने तक की आय में और कई अस्पष्ट बोलने तक की उम्र में ही मर जाते हैं। दूसरे पंचशिला पाले मनुष्य कुमार अवस्था में ही मृत्यु की गोद में चले जाते हैं, कई युवक होकर तो कई मध्यम (प्रोढ़) उम्र के होकर अथवा बढ़े होकर चल बसते हैं। इस प्रकार बीज आदि का नाश करने वाले प्राणी (इन अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था में) आयुष्य क्षय होते ही शरीर छोड़ देते हैं। हे जीवो! मनुष्यत्व या मनुष्य-जन्म की दुर्लभता को समझो। (नरक एवं तिर्यंच योनि के भय को देखकर एवं विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवेक अलाभ (प्राप्ति का अलाभ) जानकर बोध प्राप्त करो। यह लोक ज्वरपीड़ित व्यक्ति की तरह एकान्त दुःस्वरूप है। अपने (हिंसादि पाप) कर्म से सुख चाहने वाला जीव सुख के विपरीत (दुःख) हो पाता है। संयुममहा अंतो माणुसतं, बटुं भयं बालिसेणं असंभो । एपंतपुरखे जरिते व लोए, सफम्मुणा विपरियासुदेसि ।। -सूय. सु. १, म. ७, गा. १०.11 षड्जीवनिकाय-हिंसाकरण-प्रायश्चित्त-३ सचित्तरक्खमूले आलोयणाई करण पायच्छित्त सुसाइं- सचित्त वृक्ष के मूल में आलोकन आदि के प्रायश्चित सूत्र--- ३५०. जे मिक्सू सचित-वक्त-मूलसि ठिच्चा आलोएज वा पलो- ३५०. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थिर होकर देखे, बारएज्ज वा आलोयतं वा पलायंस या साइजाइ । बार देखे, दिखावे, बार-बार दिखाये, देखने वाले या बार-बार देखने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू सचित-स्वख-मूल सि ठिच्छा ठाणं वा सेज्ज वा जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर कायोत्सर्ग निसी हिय वा तुपट्टन्तं वा एइ चेयस वा साहजह। करे, शय्या बनावे, बैठे पा लेटे इत्यादि कार्य करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करे। थे भिक्ख सचित्त-इक्व-मूलंसि ठिच्चा असणं था-जाब-साइमं जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर असण वा आहारे आहारतं वा साइपनह। --याव-खाद्य का आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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