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१४०) चरणानुयोग
आयानमै साहयतीहि सद्धि संग
इह खलु गाहावती अप्पणी सअट्टाए अगणिकार्य उज्जालेज्ज बा, पजालेज वा विज्झावेज्ज वा ।
अह भिक्खू उara मणं नियच्छेज्जा
निनिधियों के लिए अकरूप्य उपाध
"एते तु भगणिकार्य पज्जा विजायें।"
वा मा वा
बा, भा वा पज्जातंतु, विज्झायेंतु या मावा
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अह भिक्खूणं पुरुषोविठ्ठा जाव एस उबएसे जं तपगारे उस्सए जो ठाणं धा, सेज्जं वा विसीहियं वा चेतेज्जा । ब. सु. २. अ. २. ३. १. सु. ४२३ आयागमे विश्वस्त गाहाबतीत संवयमाणा ।
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अह विणू उपाय म "रिवासा पो का एरिशिया इति इति वा णं मणं साएजा ।
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अह भिक्लूर्ण पृथ्वोवfवट्ठा जान एस उवएसे जं तत्पगारे उस्सए जो ठाणं वा सेज्यं या गिसीहियं वा तेज्जा । - आ. सु. २, अ. २, उ. १. सु. ४२४ आपागमे चिन्तु महावत संवसमा दाहालको वा हाि मुण्हाओ वा गाहावतिधातीओ वा गाहाचतिवासीओ वा. गाहावतिकम्मकरीओ या तासि च ण एवं वृत्तपुष्यं भवति
"जे हमे भवंति समणा भगवंतो सोलमंता वयमंता, गुणमंता, संजता, संडा भयारी, उवरता मेहणातो घातो जो एसि कप्पति नेम्मदरियारनाए आट्टिए।
सूत्र -४
गृहस्थों के साथ एक मकान में साधु का निवास करना इस लिए कर्मबन्ध का कारण है कि,
उसमें गृहस्वामी अपने प्रयोजन के लिए अग्निकाय को जित प्रज्वलित करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझाएगा।
वहाँ रहते हुए भिक्षु के मन में कदाचित् ऊँचे-नीचे परिणाम आ सकते हैं
नह
गुम्यों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है (उसमें निम्नोक्त कारणों से राग के भाव उत्पन्न हो सकते हैं 1 ) के गाडि वा दुवा. मोबा, मोलिए जैसे कि उसमें कुण्डन करनी मि वा, हिरणे था, सुषण्णे वा कडगाणि वा तुडियाणि या, मुक्ता, चाँदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तोतला हर तिसरगाणि या पाचाणि वा हारेका जाना अठारह लड़ी का हार, तौ लड़ी का हार, एकाबली बलो वा मुसावली चा कणगावली वा रयणावली वा हार मुक्तावली हार, कनकावली हार, रत्नावली हार, अथवा हाए । कृत दर विभूषित युवति या कुमारी
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या कुमारि
दो गृहस्थ अग्नि को उज्वलित करे, अथवा उज्वलित न करे तथा ये अग्नि को प्रज्वलित करे अथवा न करे, अग्नि को बुझां दे अथवा न बुझा दे !'
इसलिए तीर्थकरों ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा यताई है पावत् उपदेश दिया है कि वह उपश्रम में स्थान शय्या एवं स्वाध्याय न करे
वस्त्राभूषण
भूषण आदि कन्या को देखकर,
भिक्षु के मन में ऊंचे-नीचे संकल्प विकल्प आ सकते हैं वि "ये आभूषण आदि मेरे घर में भी थे इसी प्रकार की थी, या ऐसी नहीं थी ।" उद्गार भी निकाल सकता है अथवा मन ही मोदन भी कर सकता है ।
अतः तीर्थकर प्रभु ने पहले से ही साधुओं के लिए ऐसी प्रतिज्ञा यावत् उपवेश दिया है कि साधू ऐसे उपाधय में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे ।
एवं मेरी कन्या भी वह उस प्रकार के मन उनका अनु
गृहस्थों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्म बन्ध का कारण है.
क्योंकि उसमें गृहरनियाँ, गुहस्थ की पुत्रियों प धायमाज्ञाएँ दासियां या नौकरानियाँ भी रहती हैं। उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि
दो मारवा होते हैं. ये शीलवान शनिष्ठ गुणवान गंयभी लाखों के निरोधक, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से सदा उपरत होते हैं। अतः मैथुन सेवन इनके लिए कल्पनीय नहीं है।