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________________ पुष ४ निम्रन्थ-मिप्रन्थियों के लिए अकालय उपाधय चारित्राचार : एषणा समिति [६३९ मह मिक्लू पं पुस्खोवविट्ठा-जाव-एस उपएसे में तहप्पगारे (इस तरह गृहस्थ कुल के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक सामारिए उवस्सए णो ठागं वा, सेज्मं वा, णिसोहियं वा दोषों की संभावना देखकर) तीर्थकर प्रभु ने भिक्षु के लिए पहले चेतेना। -आ. सु. २, अ.२, उ.. सु. ४२१ से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है- यावत्-उपदेश दिया है कि वह ऐसे गृहस्थ संसक्त मकान में कापोत्सर्ग, शय्या और स्वाध्याय न .. . . ... .. आयाणमेयं मिस्स गाहावलिया सशि संवतमाणस । गृहस्थ के साथ ठहरने वाले साधु के लिए बह कर्मबंध का कारण है। इह खलु गाहावास्स अप्पगो सयट्ठाए विरुवस्वाई भिषण- क्योंकि वहाँ गृहस्व के अपने स्वर्ष के लिए पहले नाना पुवाई भवंति। प्रकार के काष्ठ (लकड़ियां) काट कर रखी हुई होती हैं, अह पच्छा भिक्खूपरियाए विरूवरूवाई वाल्याई भिवेज्ज उसके पश्चात् यह माधु के लिए भी विभिन्न प्रकार के वा किणेग्ज वा, पामिकचेज वा दारणा वा बायपरिणाम काष्ठ को काटेंगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ कटु अगणिकायं जज्जालेग्ज वा, पज्जालेत वा, से काष्ठ का पार्पण कर अग्निकाय को उज्वलित एवं प्रज्वलित करेगा। तत्य मिरा अभिकलेज्जा आयावेत्तए वा, पयावेसए वा, ऐसी स्थिति में सम्भव है वह साधु भी गृहत्य की तरह विट्टित्तए था। शीत निवारणा आताप और प्रताप लेना चाहेगा। तथा उसमें आसक्त होकर नहीं रहना चाहेगा। अह मिक्खूर्ण पुग्वोवविट्ठा-जाब-एस उबएसे जं तहपगारे इसलिए तीर्यवरों ने मिशुओं के लिए ऐमी प्रतिज्ञाउवस्सए जो ठागं वा सेज्ज वा मिसीहि वा चैतेज्जा। यावत् - उपदेश दिया है. कि साधु ऐसे उपाश्रय में स्थान, शम्या ___ --आ. सु. २, अ. २, रु. २, सु. ४२६ एवं वाध्याय न करें। आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उबस्सए संबसमःणस्स । साधु के लिए गृहस्थ-संसर्ग युक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है, हह खलु गाहावती वा-जाब-कम्मकरीओ वा अण्णपणं क्योंकि उनासे गृहस्वामो-यावत्-नौकरानियाँ कदाचित अश्कोसति वा, वहति वा, समंति बा, गद्देवेति वा । परस्पर एक-दूसरे को कटु वचन कहें, मारे गोटें, बंद करे या उपद्रव करें। अह मिक्लू उच्चावयं मण गियच्छेज्जा-एते बलु अण्णमणं उन्हें ऐसा करते देख भिक्ष के मन में ऊँचे नीचे शाब आ अक्कोसंतु वा, मा वा अक्कोसंतु-जाव-मा वा उहवेतु। सकते हैं कि ये परसर एक-दूसरे को भला-बुरा कहें अयवा नहीं कर्हे-यावत्--उपद्रव करें या नहीं करें। अह मिरलूगं पुष्खोवविट्ठा-जाव-एस उपएसे जं तहप्पगारे इसलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही सधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा सागारिए उवस्सए णो दाग था, मेजवा णिसोहियं वा, बताई है-यावत् -उपदेश दिया है कि यह गृहस्थयुक्त उपा तेन्ना। -आ. सु. २, अ. २, उ. १ सु. ४२२ श्रय में कायोत्सर्ग, शय्या और स्वाध्याय न करे । से मिक्खू वा भिक्षी या से पुण उयस्सवं आणेज्जा- यदि भिक्षु मा भिक्षणी ऐसे उपाश्रय को जाने कि--- इस इह खलु गाहावती वा-जान-कम्मरीजो वा, अण्णमाणं उपाश्रय में गृहस्वामी यावत्-कर्म करने वाली परस्पर एक अश्कोसंति वा-जाव-उद्दति वा, णो पण्णस्त मिक्खमा- दूसरे को कोसती है,- यावत्-उपनाव करती है, प्रज्ञावान् साधु पवेसाए-जाय-चिताए । से एवं गमचा तहप्पगारे जवस्सए को इस प्रकार के उपाय में निर्गमन प्रवेश करता-यावत-- गो ठाणं वा, सेम था, णिसीहिय वा तेजा। धर्ममितन करना कितनहीं है। यह जानकर साधु उस प्रकार -आ. मु. २, अ.२, उ.३, सु. ४६ के उपाय में स्थान, शव्या एवं स्वाध्याय न करे ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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