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________________ सूत्र ८४ निग्रम्प-निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय जाय खलु एवं मेहरिया टेक पुतं खलु सा लज्जा ओर्यास्स तेयस्स वच्चस्स, जर्सास, संपरापिय आलोयदरिसिणिज्जं ।" एप्पगार जिग्घोस सोन्या जिसम्म तासि च प अतरी सो तं तदस्सि भिवकुं मेम्मपरिवारमा आउ वेज्जा । अह भिक्खू णं पुग्यो दिट्ठा जात्र एस उवएसे जं तहपगारे सागारिए उबस्सए जो ठाणं वा, सेज्जं वा, णिसीहियं वा तेज्जा इह खलु गाहत्वइस्स अप्पणो स्यट्टाए विश्वरूवे भोयणजाते उपखडिले सिया, वह पच्छा भिक्खूपडियाए असणं वा - जाव- साइमं वा उवक्खडेज्ज था. उनकरेज्ज वा । तं च भिफ्लू अभिकजा भोत्तए वा. पायए था विर्यात्तए वा । -आ सु. २, अ. २, उ. १, सु. ४२५ करे । यामेातीविसमा अहम पुग्योfट्टा-जाय एस उसे जं तहत्यमा रे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा गिसोहियं वा तेजा। - आ. सु. २, अ. २. उ. २, सु. ४२८ गाहावती नामेगे सुइसमायारा भवंति भिक्खू य अभिणाणए मोमायारे से गंधे मधे पडिकले पहिलोमे यादि भवति जं पुरुवकम्मं तं पच्छाकम्मं जं पच्छाकम्मं तं पुत्वकम्मं, पिडियाए बट्टमाणा करेज्जा वा णो वा करेज्जा । क्यारे बस्सए जो ठाणं या सेज्जं था, पिसांहियं का चेतेज्जा | - आ. भु. २, अ २, उ. २, सु. ४२७ सेम वा भिक्खूणी वा से ज्जं पुण उवस्मयं माणेज्जाइह खलु गाहावती वा जाव-कम्मकरीओ डा. अण्णमण्णस्य मातंग वानमा ि बा चारित्राचार एवणा समिति पोथी इनके हाथ मैथुन -कीड़ा में प्रवृत्त होती है, उसे ओजस्वी, तेजस्वी, प्रभावशाली - (रूपवान् ), यशस्वी, संग्राम में शुरवीर चमक-दमक वाले एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है।" इस प्रकार की बातें सुनकर मन में विचार करके उनमें से पु-प्राप्ति भी कोई स्त्री उपस्वी भिक्षु को मैन सेजन के लिए अभिमुख र ऐसा है। इसलिए तीर्थंकरों ने साधुओं के प्रतिज्ञा यावत् उपदेश दिया है गृहस्थों से संसक्त उपाश्रय में स्थान, -- [ ६४१ लिए पहले से ही ऐसी कि साधु उस प्रकार के शय्या और स्वाध्याय न गृहस्थों के साथ निवास पाने साधू के लिए वह का कारण है, क्योंकि वहाँ गृहस्थ ने अपने लिए नाना प्रकार के भोजन तैयार किये हुए होते हैं उसके पश्चात् वह साधुओं के लिए अन - यावत् — स्वाद्य आहार तैयार करेगा उसकी सामग्री जुटा एगा 1 उस आहार को साधु खाना या पीना चाहेगा या उस आहार में आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा । इसलिए के लिए तीर्थकरों ने यह प्रतिज्ञापत् उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के उपाश्रय में स्थान शय्या एवं स्वाध्याय न करे । कोई गृहस्थ शोचाचार-परायण होते हैं और भिक्षु स्नाव न करने वाले तथा मौकाचारी होते हैं। इस कारण उनके शरीर या वस्त्रों से आने वाली दुर्गन्ध उस गृहस्थ के लिए प्रतिकूल और अप्रिय भी हो सकती है । इसके अतिरिक्त वे गृहस्य ( स्नानादि ) जो कार्य पहले करते अब भिक्षुओं की अपेक्षा से बाद में करेंगे और जो कार्य बाद में करते थे मे पहने अथया भिक्षुओं के कारण वे असमय में भोजनादि त्रिवाऐं करेंगे या नहीं भी करेंगे । इसलिए तीर्थकरों से भिक्षुओं के लिए पहले से ही प्रतिज्ञा -- यावत् – उपदेश दिया है कि साधु ऐसे उपाश्रय में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय करे । भित्र या भिक्षुणी अगर ऐसे उपाय को जाने कि वहां गृहस्वागी-घावत्-नौकरानियों एक दूसरे के शरीर पर तेल. • यावत्-नवनीत से मर्दन करती है या चुपड़ती है, तो प्राज्ञ
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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