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________________ नियों के बकल्प्य उपाश्रय चारित्राचार : एषगर समिति [६३५ णिगंयाणं अकप्पणिज्जा उपस्सया नियों के कान्य माण८२. भो कप्पड़ निग्गंयाणं इत्यि-सागारिए उसस्सए वत्पए। २. निर्गन्धों को स्त्री-गागारिक (स्त्रियों के निवास वाले) उपा -कप्प.उ.१, सु. २८ श्रय में बसना नहीं कल्पता है। नो कप्पाड निगंथाणं, पडिवसेज्जाए बत्थए। निग्रंथों को प्रतिबद्ध (गृहस्थ के घर में संलग्न छत वाली) -कप्प. उ. १. सु. ३२ शय्य" में बसना नहीं कल्पता है। नो कम्पा निग्थाणं, गाहाबद-कुलस्स मजसं मजमेण गंतुं गृह के नध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-आने का मार्ग वस्थए । - कप्प. उ. १, सु. ३४ हो उस उपाश्रय में निग्रंथ्यों को बसना नहीं कल्पता है। णिगंधोणं अकम्पणिज्ज उबस्सया - निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय२३. मोकप्पद निग्गीणं, पुरिस-सागारिए उबस्सए वत्थए। ८३. निग्न स्थियों को पुरुष-सागारिक (केवल पुरुष निवास वाले) -कप्प, द. १. सु. ३० उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है। नो कप्पर निगाणं, आवणगिहंसिया, रत्थामुहंसि बा, निर्गन्मियों को दुकान युक्त मह में, गली के प्रारंभ में, सिंघाडगंसि वा, तियसि वा, चउमासिवा, चच्चरसि वा, शृंगाटकाकार स्थान में, तिराहे में, चौराहे में, अनेक मागं मिलने अन्तरावगंसि वा वस्यए। -कण, उ.१. सु. १२ के स्थान में (बने हुए गृही में) या दुकान में बसना नहीं कल्पता है। मो कप्पर निग्गंधीगं सामारिय अणिस्साए अस्थए । निर्गन्धियों को सामारिक की अनिधा से (उपाश्रय के स्वामी - वप्प. उ. १, मु.२३ से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त हुए बिना) उपाथय में बसना नहीं कल्पता है। नो कप्पद निग्गंधीण-अहे आगमणगिहसि वा, प्रियकगिहसि निग्रंथियों को आगमन गृह में, चारों ओर से खुले घर में, का, वसीमूससि वा, रुक्खमूलसि बा, अम्माषगासियंति वा छप्पर के नीचे (वा बोस की जाती युक्त गृह में), वृक्ष के नीचे वस्थए । कण्य, उ. २, सु. १ मा आकाश के नीचे बसना नहीं कल्पता है। णिग्गंध-णिग्गयीणं अकप्पणिज्जा उवस्या- नियंग्य-निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय४. नोकप्पह निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा, सागारिप यस्मए ६४. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को सागारिक (गृहस्थ के निवास पत्थए। - कप्प. उ. १, नु. २६ दाले) उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है । नो कप्पह निग्गंधाण वा निग्गयोण वा, सचित्तकम्मे उस्लए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को सचित्र उपाश्रय में बसना वत्थए। __ - कण. उ. १. सु. २१ नहीं कल्पता है। से जं पुण उवस्मयं जाणेज्जा-अस्सिपंडियाए एग पदि साधु ऐसा उपाधय जाने, जो कि (भाषक गहस्थ द्वारा) साहम्मिपं समुहिस्स पाणाई-जाव-ससाई समारन्म समुहिस्स, इसी प्रतिज्ञा से अर्थात् किसी एक साधमिक साधु के उरश्य से प्राणी –यावत्--- सत्वों का समारम्भ करके बनाया गया है, 'प्रतिबद्ध शय्या'---द्रव्यतः भावतश्च प्रतिबद्ध उपाश्रयः । द्रव्यतः पुनरयम्-पृष्ठवंशः' - बलहरगं, म योपाश्रये गृहस्थगृहेण सह संबंद्धः स द्रव्य प्रतिबद्ध उच्यते । प्रलवणे स्थाने रूपे शब्दे पेति चत्वारो भेदा भाव प्रतिबद्धे भवंति ।। -- कल्पभाष्य उ.१सू. ३० भावार्थ-(१) द्रव्य प्रतिबद-उपाश्रय और गृहस्थ गृह की छत एक ही बलधारण आधार पर हो। (२) भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय ४ प्रकार का होता है यथा-(१) स्त्रियों की व साधु की प्रमण मूमि एक हो । (२) हवा प्रकाश आदि के लिये अन्यत्र खड़े रहने बैठने का स्थान साधु का व स्त्रियों का एक हो। (३) जिस उपाश्रय में बैठे-बैठे ही स्त्रियों के दिखते हों। (४) जिस उपाश्रय में स्त्रियों के अनेक प्रकार के शब्द सुनाई देते हों। इस प्रकार के द्रव्य और भाव प्रतिवद उपाश्रय में रहना साधु को नहीं कल्पता है । ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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