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________________ ६३६] परणानुयोग अस्प सावध किया-कल्पनीय शय्या सूत्र १ अध्याकिरिया जागतिजा कहाणी... अल्प सावध क्रिया-कल्पनीय पाय्या५०. इह खलु पाईणं या-जान-उवीणं वा संगतिया सहा मति ८०. इस संसार में पूर्व यावत् उत्तर दिशा में, कई श्रद्धालु व्यक्ति -जाव-तं रोयमाणेहि अप्पणो सयट्ठार तत्व तत्य अगारीहिं होते हैं पावन दे अभिरुचि से प्रेरित होकर उन्होंने अपने निजी अंगाराई चेतियाई भवंति, प्रयोजन के लिए यत्र-अत्र मकान बनवाए हैं, तं जहा-आएसगाणि वा-जाव-भवणगिहाणि वा, जैसे कि- लोहकारणाल यावत् भूमिगृह आदि । महता पुरषिकायसमारंभेणं, उनका निर्माण पृथ्वीकार के महान समारंभ से, महत्ता आउकायसमारंभेणं, अपकाय के महान् समारंभ से, महता तेउकायसमारंमेष, तेउकाय के महान समारंभ से, महता वाडकायसमारंभेणं, बाउकाय के महान् समारंभ से, महता वणस्सहकापसमारंभेणं, पनस्पतिकाय के महान् समारंभ में, महता तसकायसमारंभेगं महया सरमेणं, महया समारभेण, सकाय के महान् समारम्भ से इस प्रकार महान संरम्भ, महया आरंभेष, समारम्भ एवं आरंभ से, महता विकवरूहि पावकम्मकिश्चेहि, तथा नाना प्रकार के पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है, सं जहा-छावणतो, मेषणतो, संथार-वार-पिहणतो, जैसे-छत डालने, लीपने, संस्तारक कक्ष सम करने तथा सीतोपए वा परिदृविर पुरे भवति, मपनिकाए वा उश्णा- वार का दरवाजा बनाने से हुआ है तथा वहां सचित्त पानी लियपुख्खे भवति, डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित की गई है। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएमणाणि वा-जाब-नवम-गिहामि जो पूज्य निमन्थ श्रमण इस प्रकार के (गृहस्थ द्वारा अपने वा उवापति, उवागरिता इतराहतरेहि पाहडेहि वट्टति लिए निर्मित) लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वासस्थानों एगपख ते कम्म सेवंति, अयमाउसो| अप्पसावजकिरिया में आकर रहते हैं, अन्यान्य सावध कर्म निष्पन्न स्थानों का उपयावि भवति। -आ सु. २, अ.२, उ.२, सु. ४४१ योग करते हैं वे एकपक्ष (भाव से साधुरूप) कर्म का सेवन करते है। हे आयुष्मन् ! उन श्रमणों के लिए बह शय्या अल्प सावध क्रिया (निदोष) रूप होती है। RINA शम्यषणा-निषेध-२ गिहारंभकरण णिसेहो गृह-निर्माण-निषेधप.न सब निहाई कुग्वेजा, मेव आनेहि कारए। ८१. भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवार । ग्रह गिहमाम्म समारम्भे भूयाणं हौसई बहो ॥ निर्माण के सभारम्भ (प्रवृत्ति) में प्रस और स्थावर. सूक्ष्म और ससाणं पावरागं सृढमाणं गायराण । गदर जीवों का वध देखा जाता है। इसलिए संयत भिक्षु गृहतम्हा गिहसमारम्भ संजओ परिवणए ।। समारम्भ का परित्याग करे । -उत्त. अ. ३५, गा. ८-९ हतं गाणुजाणेजा, आयगुसे जिरिए । प्रामों में था नगरों में श्रद्धालुओं के कुष्ठ आश्रय स्थान होते डागाई संति सहीणं, पामेसु नगरेसु वा ।। है, उनके निर्माण में होने वाली हिसा' का आस्मगुप्त गितेन्द्रिय -मूय. सु. १, अ. ११, गा. १६ मुनि अनुमोदन नहीं करते हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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