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________________ निग्रन्थियों के कल्य उपभय चारित्राचार : एषणा समिति [११५ अम्तो को भासे, बाहि वो मासे। दो मास ग्राम आदि के अन्दर और दो मास ग्राम आदि के बाहर । मन्तो वसमाणीणं, अन्तो भिक्खारिया। माम आदि के अन्दर बसने वाली निग्रंथियों को ग्राम आदि के अन्दर बसे घरों में भिक्षाचर्या करना कल्पता है। बाहि असमाणीणं, वाहि भिजवायरिया। ग्राम आदि के बाहर बसने वाली नियंथियों को ग्राम -नण. उ. १. सु. - बादि के बाहर बने घरों में भिशाचर्या करना कल्पता है । जिग्गंथीणं कप्पणिज्ज वसहिओ --- . निग्रंथियों के कल्प्य उपाश्रय . . ७६. कप्पड निग्गंधीणं, सागारिय-निस्साए वत्थए । ७६. निर्ग्रन्थियों को सागारिक की निश्रा से (उपाश्रय के स्वामी -कप्प. उ. १. सु. २४ से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त होने पर) उपाश्चय में बसना बाल्पता है। कप्पा निग्गं पीण, इस्थि-सागारिए जवस्सए बस्थए। निर्ग्रन्थियों को स्त्री-सागारिक केवल स्त्रियों के निवास -कप्प. उ.१.सु.३१ वाले) उपाश्रय में बसना कल्पता है। कम्पा निगमीण, पश्चिम सेबजाए वायए। निम्रन्थियों का प्रतिबद्ध (उपाश्रय की भित्ति से संलग्न) --कप्प. उ. १, सु. ३२ शय्या में बसना कल्पता है । कप्पा निग्गंधीग, गाहावा-कुलस्स मज्मं मम्मेण गंत गृह के मध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-आने का मार्ग वस्थए । -कप्प. उ. १, सु. ३५ हो उस उपाश्रय में निग्रन्थियों को बसना कल्पता है । गिरगंय-णिग्गंयोणं कप्पणिज्जा उबस्सया- निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के कल्पा उपाश्रय७७. कप्पा निग्गंधाण वा निग्गयीण वा अप्पसागारिए उबस्सए ७७. निम्रन्थों और निर्ग्रन्थियों का अल्प-सागारिक (गृहस्थ निवास प्प. उ.१, सु. २७ रहित) उपाधय में बसना कल्पता है। कम्पा निगंयाण वा निषीण या अधित्सकम्मे अपस्सए निम्रन्थों और निग्नन्थियों को चित्र-रहित उपाश्रय में बसना वस्थए। -कप्प. उ. १, सु. २२ कल्पता है । गामाइसु जिग्गंय-णिग्गंधीणं वसणविहि ग्रामादि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के रहने की विधि७८. से गामंसिवा-जाब-रायहाणिसि वा, अभिनिवाए, अभि-७८, नियंन्थों और नियंन्थियों को अनेक बगडा, अनेक द्वार निषवाराए अभिनिवखमणपवेसाए, कप्पद निग्गंयाण य और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम --यावत-राजधानी में मिगधोण य एषयमो बत्थए। -कप्प. उ. १, मु. ११ समकाल वसना कल्पता है । अभिक्कत किरिया कप्पणिज्जा बसही अभिक्रान्त क्रिया कल्पनीय शय्या -- ७६. खलु पाईगं वा-जाव-उदोणं वा संतेगतिया साता भवति, ७६. हे आयुरुमन् ! इस संसार में पूर्व याषत् उत्तर दिशा में कई बालु होते हैंतं जहा-गाहापती वा-जाव-कम्मकरीओ वा, तेसि चणं जैसे कि--गृहस्वामी यावत् नोकर-नौकरानियाँ लादि आयररगोयरे णो सुणिसते भवति, त मदहमाहि. तं पत्ति- उन्होंने निर्गन्य साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में तो यमाणेहि त रोयमाणेहि, रहवे समग-भाहण-अतिहि विवण सम्यकृतया नहीं सुना है, किन्तु श्रद्धा प्रतीति एवं अभिरुचि रखते वणीमए समुहिम तस्य तस्य अगारोहिं अगारा, सिताई हए उन गृहस्थों ने (अपने-अपने ग्राम या नगर में) बहुत से भवंति, संजहा—आएसणाणि वा-जाव-भवणगिहाणि वा। णाक्यादि श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथि दरिद्रों और भिखारियों आदि मे उई प्रय से गृहस्थों ने जगह-जगह मकान बनवा दिये हैं जैसे - लुहारशाला यावत् भूमि गृह आदि।। जे भयंतारो तहप्पगारा आएसणाणि घा-जाव-भवागिहाणि जो अमण भगवन्त इस प्रकार के लोहकारशाला यावत् भा सेहि ओवतमाहि ओवतंति अपमाउसो! अभिषकत- भूमिगृह आदि आचास स्थानों में, जहाँ शाक्यादि थमण ब्राह्मण किरिमा या वि भवति । आदि पहले ठहर गए हैं, उन्हीं मे दाद में आकर ठहरते हैं तो -आ. सू.२ अ.२, उ, २, मु. ४३५ बह शय्या अभिकान्त क्रिया वाली (निदोष) हो जाती है ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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