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________________ सूत्र १०६-१०० wwwwwwwww तिवत्थधारी भिक्खु– १६. जीनाम हि परिसिले पाहि यो एवं भवति, "चउत्थं वत्थं जाइस्सामि ।" १ से असई भरपाई जाएगा महापरियहवाई सत्थाई धरेला जागृतं वत्यारिस्स सामग्मियं । अह गुण एवं जागेज्जा उवातिक्ते खलु हेमंते गिरहे पविणे अहारजाईवा परिवेश अनुवा संतरे अनुवा ओम असा लाघवियं आसेमाणे तवे से अभिसमण्णागते भवति । जतं भगवता पवेवितं तमेव अभिसमेच्या सव्वतो सम्बताए सम्मतमेव समभिजाणिया । णिग्गंची संपादीयमाणं १८७. जा विग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेल्जा एवं हत्यविरं हित्त्मा एकवारं प्यारे वह संविज यह एमे संसीवेज्जा । आ. सु. २. अ. ४, उ. १, नु. १५३ (ख) गंभीर संघाडी सिवान पायच्छितं- " अणं. अ. ४, उ. १, सु. २४६ । चारित्राचार : एषणा समिति -आ. सु. १. अ. उ. ४, सु. २१३-२१४ प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे । तं सेवमाय पाउमावि परिहार उत्पाद - नि. उ. १२, सु. ७ तीन वरधारी भिक्षु १०६. जो और पी पात्र रखने की मर्शदा में स्थित है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करूँ।" तो वह यक्ष- एपणीय वस्त्रों की याचना करे और यथापरि गृहस्थों को धारण करे उस तीन वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री है। निर्धन्यो की वस्त्र धारण की विधि-२ [३] जब भिक्षु यह जान ले कि हेमन्त ऋतु दी गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है। तब वह निजत्रों को कोई जाने उन परित्याग कर दे। यदि जीणं न हुए हों तो तीन वस्त्र में हो रहे यदि एक जीर्ण हो गया तो उसका परित्याग करके दो वस्त्र में रहे. यदि दो जीर्ण हो गये हीं तो उनका परित्याग करके एक शाटक (एक ही वस्त्र) वाला होकर रहे । अथवा तीनों वस्त्र जीर्ण हो जाने पर अचेलक हो जाए । इस प्रकार बस्त्र परित्याग से लाववता प्राप्त करते हुए उस मुनि के तप (रोदरी और काकलेज) सहज हो जाता है । [६७७ भगवान ने जिस प्रकार से इसका प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराईपूर्वक जानकर सन प्रकार से सर्वात्मना सम्यक १८ पीएन या गारो थासिघ्यावे, सिव्यातं वा साज्जइ । निर्ग्रन्थियों के चादरों का प्रमाण १८७. जो साध्वी है, वह चार संघाटिका (नगर) धारण करेउसमें एक दोहा प्रमाण विस्तृत दो तीन हाथ प्रमाण विस्तृत और एक बार हाथ प्रमाण विस्तृत (लम्बी होनी चाहिए इस प्रकार के विस्तार युक्त वस्त्रों के न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे वस्त्र के साथ सीं ले - निर्वन्धी की साड़ी लाने का प्रायश्चित्त सूत्र- की निको पाटी (वाड़ी आदि को अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से सिलवाता है या मिलवाने वाले का अनुमोदन करता है । उसे भाविक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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