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________________ ६७६ ] चरणानुयोग एक बरधारी म निर्ग्रन्थ के वस्त्र धारण की विधि-२ [२] एगवत्थधारी मिस्सू एक पत्रधारी भिक्षु १८४. जे भिक्खु एगेण बत्थे परिवसिते पायबिलिए तस्स गो १८४, जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा एवं भवति — बितियं वत्थं जाइस्सामि स्वीकार कर चुका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता है कि 'मैं दूसरे वस्त्र की याचना करू" । से अस णिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिगहियं वत्थं धारेज्जा -जाव एवं खु वत्यधारिस्स सामरियं । पुण एवं जातिि अहा परिष्वत्यं परवेज अदुवा एमसाने, अदुवा अबेले, लाववियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णायते भवति । अयं भगवया पवेदितं तमेव अभिसमेन्वा सवतो सध्याए सम्मत्तमेव समभिजाणिया । aloreधारी भिक्खू १५४ वहिरिति णं गो एवं भवति-"ततियं तत्थं जाइस्सामि । से आहेसारवाई जाएजा महापरिग्नहिया त्या भारेज्जा- जाब- एतं खु वत्थधारित सामरियं । अह पुण एवं जाणेज्जर "ज्यातिषते खलु हेमंते पविणे" अहापरिजृष्णाई पत्याई परिटुवेज्जा, ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अनुवा अचेले, म्हे अदुवा - आ. सु. १, अ. ८ . ६ सु. २२०-२२१ भांति आचरण में लाए । दोरी भिक्षु लाघवयं आगममाणे तवे में अभिसमण्णागते भवति ' जय भगवता पवेदितं तमे असिमेच्छा सवतो सन्यसाए सम्मतमेव सममिजाणिया । वह यथा एणीय वस्त्र की याचना करे और यथा गृहीत वस्त्र को धारण करें- यावत् उस एक वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री (धकरण समूह है। सूत्र १८४-१८५ जब शिशु यह जाने कि अब ऋतु आ गई है वह जो जो त्याग करे। यदि दन पर) में रहे अचेल (वस्त्र रहित हो जाए। हेमन्त ऋतु बीत गई है ग्रीष्म वस्त्र हो गये है उसका जीर्णन हुआ हो तो वह एक शाटक (आच्छा यदि जीर्ण हो गया हो तो उसे परठकर बढ़ इस प्रकार वस्त्र परित्याग से लाघवता प्राप्त करते हुए उस मुनि को सहज ही तप प्राप्त हो जाता है। भगवान ने जिस प्रकार से उसका निरूपण किया है, उसे उसी रूप में महराईपुर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वाना भली १८५. जो भिक्षु दो वस्त्र और तोमरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि 'मैं तीन रे वस्त्र की याचना करू ॥ वह अपनी कल्पदानुसार एमणीन वस्त्रों की याचना करे और गृहीत वस्त्रों को धारण करे यावत् द्विवस्त्रधारी भिक्षु यही सामग्री है। जब भिक्षु यह जाने गीत गई है, श्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जो वस्त्र जीर्ण हो गए हैं, उनका परित्याग करें। यदि जीर्ण न हुये हों तो दो वस्त्र में ही रहे, यदि एक वन्त्र जीर्ण हुआ हो तो उसका परित्याग करके एक शादक ( आच्छादन पद) में रहे, यदि दोनों जीर्ण हो जायें तो उनका परित्याग करके अचेल हो जाए । इस प्रकार वस्त्र परित्याग से लाघवता प्राप्त हुए उस मुनि को सहज ही प्राप्त हो जाता है । भगवान ने जिस प्रकार से इसका प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराईपूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वाना सम्यक् - आ. सु. १. अ. ८. ३. ५. सु. २१६-२१७ प्रकार से जाने व क्रियान्वित गरे ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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