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________________ ६७८] चरणानयोग वस्त्र ग्रहण के विधि-निषेध सूत्र १८६.१६१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी वस्त्र धारण के विधि-निषेध-२ [४] वस्थस्स गहण बिहि-णिसेहो-. वस्त्र ग्रहण के विधि-निषेध१८६. से भिक्खू बा, भिषखूणी वा से जं पुण बत्थं जाणेज्जा--- १६. भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों में सजे-जाय-संताणगं ताप्पगारं वत्थं अफासुय-जान-णो --यावत् – मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के वस्त्र पडिगाहेज्जा। को अप्रामुक जानकार-यावत् ग्रहण न करे । से भिक्खू वर, भिक्खुणी वा ने जं पुण उत्थं आणेज्जा- भिक्षु या भिधुणी पत्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों से अप्पड-जाम-संताणगं, अणलं, अभिरं, अधुवं, अधारणिज्ज, --यावत्- मकड़ के जानों से तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य रोइज्जत ण रुचति, तहप्पगारं वस्र्थ अफासुयं-जावणो करने में असमर्थ है. अस्थिर है (अर्थात् टिक ऊ नहीं है, जीर्ण है) पश्चिगाहेज्जा। अ य (शेरे समय के लिए दिया जाने वाला) है, धारण करने के योग्य नहीं है अपनी रुचि के अनुकूल नहीं है तो ऐसे वस्त्र को अप्रासुक समझकर-यावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू या, भिक्खूणी था से जं पुण वत्थं जाणे ज्जा- भिक्षु वा भिक्षुणी वस्त्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों से अप्पर-जाव-संताणय, अलं, थिर, धुवं, घारेणिज्जं वश्चति, .- यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, अभीष्ट कार्य करने में तहप्पगारं वत्वं फासुयं-जाव-पडियाहेज्जा । समर्थ है, स्थिर है, ध्रुव है, धारण करने के योग्य है, अपनी -आ, सु. २, अ. ५, उ. १, सु. ५६९-५७१ रुचि के अनुकूल है तो ऐसे वस्त्र को प्रासुक नमबर-यावत-- ग्रहण कर सकता है। धारणिज्ज अधारणिन्ज वत्थस्स पायच्छित्त सुत्ताई- धरणीय-अधारणीय वस्त्र के प्राथश्चित्त सूत्र१९०. जे मिक्खू वस्य आणलं, अथिरं, अधुवं, अधारणिज्ज धरेह, १९०. जो भिक्षु अयोग्य, अस्थिर, अधव एवं अधारणीय पस्त्र धरत वा साइजइ। . को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पत्य अलं, थिर, धुवं, धारणिय न धरेड, न जो भिक्षु योग्य, स्थिर, ध्रुव एवं धारणीय वस्त्र को धारण धरतं वा साइज्जद। नहीं करता है, नहीं करवाता है और नहीं धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिका चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१८, नु.३१-३२ आता है। जे भिक्खू-वस्थं वा, कंबसं वा, पायछणं वा, जो भिक्षु वस्त्र को, कम्बल को, पादपोंछन को, जो कि अलं, थिर, धुष, धारणिज्ज पलि छविय पलिछिदिय परिट्ठ- योग, मिथर, शुव और धारणीय हैं उनके टुकड़े-टुकड़े करके वेद, परिवेतं वा साइज्जइ। परठता है, परसवात है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आयज्जइ मासिवं परिहारहाणं उग्धाइ। उने मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. ६५ आकुचणपट्टगस्स गहण विहि-णिसेहो-. आकुंचनपदृग के ग्रहण का विधि निषेध१६१. नो कप्पद निग्गंथीणं आकुंचणपट्टगं धारिसए वा, परि- १९१. निर्ग्रन्थी साध्वियों को आकुंचन पट्टक (चार अंगुल विस्तार हरितए वा। वाला पर्यस्तिका वस्त्र) रखना या धारण करना नहीं क्ल्पता है। कप्पा निरगंथाणं आणपट्टग' धारित्तए वा, परिहरिसए किन्तु निन्य साधुओं को आकंचन पटक रखना या धारण वा। -कैप्प. उ. ५. सु. ३४-३५ करना कल्पतर है। १ आनणपट्ट-पर्यस्तिकापट्ट स च पर्यस्तिकापट्ट किशः इत्याहगाहा-फल्लो अचित्तो अह आविओ वा, चउरंगुलं विस्थडो असंधिमो अ। विस्स महेउं तु सरीरमस्सा दोसा अवटु भगया ण एव ।। -बहत्वल्प भाष्य, भा, ५, गा. ५६६८ पु. १५७४
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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