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________________ ६१८] घरणानुयोग संखडी में जाने के लिए मायास्थान सेधन का निषेध सूत्र ४०.४३ से एवं पश्या तहपगारं पुरेसंखडिया पच्छा संखड वा अत. यह जानकर भिक्षु इस प्रकार की पूर्व-संखडी या संखाँच संखरि पडियाएको अभिसंधारेज्जा गमणाए। पश्चात् संखही में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने का मन में संकल्प न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा गाहावइकुलं पिंडवाय-पडियाए भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करते अणुपविढे समाणे से ज्ज पुण जामेजा—आहेणं या-जाब- समय यह जाने कि घर के घर का भोजन --यावत्-गोठ, पुत्र संमेलं वा हीरमाणं पेहाए । जन्म आदि का भोजन अन्यत्र ले जाया जा रहा है तया१. अंतरा से मग्गा अपंडा-जाव-संताणगा, (१) मार्च में बहुत से प्राणी-यावत् - मकड़ी के जाले भी नहीं हैं। २. णो जत्थ बह रुमण-जाव-वणीमगा उवागता, उयाग- (२) बहुत से श्रमण - यावत्-भिक्षार अभी नहीं आये हैं मिस्संति, और न आयेंगे। ३ अप्पाइण्णा वित्ती, (३) लोगों की भीड़ भी बहुत कम है। ४. एषणस्स णिवसमग-पवेसाए, (४) प्राज्ञ निर्गमन-प्रवेश कर सकता है। ५. पण्णस्स बायण-पुछप-परिप्रणाऽणुप्पेह धम्माणुलोग- (५) वहाँ प्राश साधु का वाचना पृच्छना आदि धर्मानुयोग चिंताए। चिन्तन हो सकता है। सेवं गच्चा तहप्पगारं पुरेसंस्खदि वा, पच्छासंगि वा ऐसा जान लेने पर उस प्रकार की पूर्व संखडी या पश्चात् संड संखडिपडियाए अभिसंधारेन्ज गमणाए। संखडी में संखडी की प्रतिज्ञा में जाने का विचार कर सकता है। -आ० गु० २, अ० १, उ० ४, सु. ३४८ मंखडीगमणाए माइट्ठाणसेवणणिसेहो संखडी में जाने के लिए मायास्थान सेवन का निषेध४१. से भिक्खू वा, भिक्खूणो वा अण्णतरं मार सोच्चा णिसम्म ४१. भिक्षु या भिक्षुणी संखडी के विषय में सुनकर मन में विचार संपहायति उस्सुयभूतेणं अप्पागणं, घुया संखडी। णो संचा- करके उरमुक भावों से संखडी में जाने के लिए भिक्षा के असमय एति तत्व इतराइतरेहि कुलेहि सामुदापि एसिर वेसियं में जल्दी-जल्दी जाता है तो वह अन्यान्य घरों में सामुदानिक पिण्डवातं परिगाहेत्ता आहारं आहारेत्तए । माटाणं संफासे। एषणीय व साधु के वेश से प्राप्त शिक्षा ग्रहण कर आहार नहीं णो एवं करेज्जा। कर सकेगा । ऐसा करना मावास्थान का सेवन करना है, अतः साधु ऐसा न करे। से तत्म कालेण अगुपविसित्ता तस्थितराइतरेहि कुलेहि मिनु को वहां समय पर ही भिक्षा के लिए प्रवेश कर सामुदाणियं एसियं वेसियं पियातं पडिगाहेत्ता आहारं विभिन्न कुलों रो सामुदानिक एषणीव व वेष से प्राप्त निर्दोष आहारेजा। -आ. सु. २, अ. १, ३. ३, सु. ३४१ भिक्षा ग्रहण कर आहार करना चाहिए। रति संखडिपडियाए गमणगिसेहो रात्रि में संखडी के लिए जाने का निषेध४२. नो कप्पइ निग्गंधाण वा, निगधाण या, रामओ वा, बियाले ४२. निर्यन्यों और निर्यनित्रयों को संखडी में संसदी के लिए भी घा संदि वा संखम्पिणियाए एतए। रात्रि में या विकाल में जाना नहीं कल्पता है । -कप्प. उ. १, सु. ४७ संखडिपडियाए गमणस्स पात्तिसुत्ताई संखडी के लिए जाने के प्रायश्चित्त सूच४३. जे मिक्षु संखडिपलोयगाए असणं या-जाव-साइम वा ४३. जो भिक्षु संखडी में खाद्य सामग्री को देखते हुए अशन पजिग्गाहेद पजिग्गाहेत या साइज्जइ। --पावत्-स्वाच आहार को ग्रहण करता है, ग्रहण करवाता है. ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं क्षेत्रमाणे आवज्जइ मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. सु. १४ आता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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