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सरणानुयोग
सम्यक्रियावाद के प्रतिपावक और अनुगामी
सूत्र २७०-२७१
सया जता विपणमंति धीरा,
बे धीर पुरुष सदैव संयत (पापकर्म से निवृत्त) रहते हुए विष्णत्तिथीरा य भवंति ऐये ॥ संयमानुष्ठान की ओर झुके रहते हैं। परन्तु कई अन्वदर्शनी ज्ञान
-सूव. सु. १, अ. १२, गा. १५-१७ (विज्ञप्ति) मात्र से वीर बनते हैं, क्रिया से नहीं। सम्मकिरियावायस्स पडिवायका पालगाय
सम्यक् क्रियावाद के प्रतिपादक और अनुगामी२७१. व्हरे य पाणे बुझे य पाणे,
२७१. इस समस्त लोक में छोटे-छोटे (कुन्थु आदि) प्राणो भी है से आततो पासति सवलोए।
और बड़े-बड़े (स्थूल शरीर वाले हाथी आदि) प्राणी भी हैं। अवहति लोगमिणं महत,
सम्यवादी सुसाधु उन्हें अपनी आत्मा के समान देखता-जानता दुख ऽप्पमसेसु परिवएग्जा ।। है। "यह प्रत्यक्ष दृश्यमान विशाल (महान्) प्राणिलोक कनेवश
दुःख रूप है," इस प्रकार की उत्प्रेक्षा (अनुप्रेक्षा- विचारणा) करता हुआ वह तत्वदर्शी पुरुष अप्रमत्त ग़ाधुओं से दीक्षा ग्रहण
करे---प्रदाजित हो। जे आसतो परतो यावि पवा,
जो सम्यक् क्रियावादी साधक स्वयं अथवा दूसरे (तीर्थंकर, अलमापणो होति अतं परेसि ।
गणधर आदि) से जीवादि पदार्थों को जानकर अन्य जिज्ञासुओं तं जोतिभूतं सताऽऽवसेज्जा,
या मुमुक्षुओं को उपदेश देता है, जो अपना या दूसरों का उद्धार __ मे पाउकुज्जा अणुवीयि धम्म ॥
या रक्षण करने में समर्थ है, जो जीवों की कम परिणति को अचवा सद्धर्म (धुन-वारित्ररूप धर्म या क्षमादिदविध श्रमण धर्म एवं धायक धर्म) का विचार करके (तदनुरूप) धर्म को प्रकट करता है, उस ज्योति: स्वरूप (तेजस्वी) मुनि के सानिध्य
में सदा निवास करना चाहिए । असाण जो जाति जो य लोग,
___ जो आत्मा को जानता है, जो लोक को तथा जीवों की आगई च जो जाणइ णागई च।
गति और अनापति (सिजि) को जानता है, इसी तरह शाश्वत जो सासयं जाण असासयं च,
(मोक्ष) और अशाश्वत (संमार) को तश्रा जन्म-मरण एवं प्राणियों जाती मरणं च जणोमवातं ।।
के नाना गतियों में गमन को जानता है। नया अधोलोक (मक अहो वि सत्ताप विउदृणं च,
आदि) में भी जीवों को नाना प्रकार की पीड़ा होती है, यह जो जो आसवं जाणति संवरंच।
जानता है, एवं जो आश्रव (कमों के आगमन) और मंवर (कर्मों दुक्खं च जो जाणति निम्तरंच,
के निरोध) को जानता है तथा जो दुःख (बन्ध) और निर्जरा को सो भासितुरिति किरियवाद ।। जानता है, वही सम्यक क्रियावादी साधक क्रियाबाद को सम्या
प्रकार से बता सकता है। सद्देसु न्वेसु असम्ममाणे,
सम्यग्बादी साधु मनोज शब्दों और रूपों में आसक्त न हो, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे ।
न ही अमनोज्ञ गन्ध और रस के प्रति द्वेष करे तथा वह णो जीवियं णो मारणाभिकखी,
(अमयमी जीवन) जीने की आकांक्षा न करे, और न ही (परीपहों आवाणगुग्ने बसणविमुक्के ।
और उपसर्गों से पीड़ित होने पर) मृत्यु की इच्छा करे। किन्तु -सूय. सु. १, अ. १२, गा. १८-२२ संयम (आदान) से सुरक्षित (गुप्त) और माया से विमुक्त होकर
अकिरियावाइ सरूवं--
अक्रियावादी का स्वरूप२७२. अकिरियावाइ-वग्णणं, तं जहा-अकिरिया गावि भवइ २७२. जो अक्रियावादी है, अर्थात् जीवादि पदार्थों के अस्तित्व नाहिय-वाई, नाहिय-पणे, नाहिय-विट्ठी,
का अपलाप करता है, नास्तिकवादी है, नास्तिक बुद्धिवाला है।
नास्तिक दृष्टि रखता है। जो सम्मवाई, जो णितिपथारी, गं संति परलोमवाई, ___ जो सम्पबादी नहीं है, नित्यवादी नहीं है और क्षणिकवादी
है, जो परलोकवादी नहीं है।