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________________ २०१ हि लोए परिथ पर लोए, पत्थि माया, णत्थि पिया, मयि अरिहंता, पश्चिमकवट्टी वारिया या पत्रुति-विसेसो कम्मा सुवि गोवा सम्माि अफले फलाम पावए णो पचायति जीवा निरयन तिरिचगई मनुस्मराई, बेदराई, से एवं बारो एवं बने एवं बिट्ठी एवं छंद-रागामिनिवि यावि भवई । सेभवति महिले महारं महार अम्मिए अम्माजुए अहम्मसेवी, अहम्मिटु अहम्मलाइ अहम्मरागी अहम्पलोई, अहम्मजीवों, अहम्म-पलज्जणे, ब्रहम्म सीलसारे अहमेव विकिपेमाने विद । "हण, छिव. भिव" विकसए · पारी, सास्सिए उपगाया-निवड-कूड कला-सं P तुस्सीले कुपरिए, दुच्चरिए, सुरणणेए, दुब्बा दुप्पडिया शुभ कर्म और पापकर्म कमरहित है, जी पर सिद्धि लोक में जाकर उत्पन्न नहीं होते, नरक, तियंच, मनुष्य और देव ये चार बतियाँ नहीं हैं, सिद्धि मुक्ति नहीं है। निमोनिए, निरगुणे, निम्बेरे, निपाणीमह बरसे. असाहू | दर्शनाचार [ १७१ जो कहता है कि इहलोक नहीं है परलोक नहीं है, माता नहीं है, पता नहीं है, नहीं है, नहीं है, बलदेव नहीं है, वासुदेव नहीं है, नरक नहीं है. नारकी नहीं है। सुकृत (पुष्प) और दुष्कृत (पाप) धर्मों का पति विशे नहीं है, सूची ( सम्पन् प्रकार से आचरित) कर्म सूची (शुभ) फल नहीं देते हैं, दुचीर्ण ( कुत्सित प्रकार से आचरित) कर्म, दुपचीर्ण (अशुभ) फल नहीं देते हैं, जो इस प्रकार कहने वाला है, इस प्रकार की प्रशा (बुद्धि) वाला है, इस प्रकार की दृष्टिवाला है, और जो इस प्रकार के छन्द (इच्छा को और राग (तीव्र अभिनिवेश या कदाग्रह) से अभिनिविष्ट (राय) है, वह मिध्यादृष्टि जीन है। ऐसा मिध्यादृष्टि जीव महा इच्छा माना महारम्भी, महापरिग्रही, अधार्मिक, अधर्मानुगामी, अधर्मसेवी, अर्घामिष्य, अधर्म ख्यातिवाला, अधर्मानुरागी, अधर्मदृष्टा, अधमं जोवी, अधर्म में अनुरक्त रहने वाला, अधार्मिक शील स्वभाववाला, अधार्मिक जागरण और अधर्म से ही आजीविका करता हुआ विचरता है। ( मिध्यादृष्टिनास्तिक आजीविका के लिए दूसरों से ) कहता है— जीवों को मारी उनके अंगों का छेदन करो, सिर-पेट आदि का भेदन करो, काटो, (इसका अन्त करो, यह स्वयं जीवों का अन्त करता है) उसके हाथ रक्त से रंगे रहते हैं, वह चण्ड, रौद्र और क्षुद्र होता है, असमीक्षित (बिना बिचारे) कार्य करता है, साहसिक होता है, लोगों से उस्को (रिदम) लेता है, प्रबंधन, माया, निकृति (छल) कूट, कपट और सातिसम्प्रयोग ( मामा-जाल रचने) में 'बहुत कुशल होता है यह होता है, दुष्टजनों से परिचय रखा है, पुर रित होता है, दुनेय (दाभावी होता है हिंसा प्रधान व्रतों को धारण करता है, दुष्प्रत्यानन्द (दुष्कृत्यों को करने और सुनने से मानन्दित) होता है अथवा उपकारी के साथ कृतघ्नता करके आनन्द मानता है। और - दस द. ६, सु. ३-५ होता है और करता है । शील-रहित होता है, पत रहित होता है, प्रत्यास्थान (त्याग) नहीं करता है, वर्षात् बानक पतों से रहत असाधु है, अर्थात् साधुवतों का पालन नहीं
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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