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१७२ ] चरणानुयोग
अकिरिवाणं समिवखा
२७३...लवावसंकीय अनागतेहि,
फिरियामा किरिया ।
सम्मिसभायं सगिरा गिहीते,
से मुम्बई होति अणावाची
इसमे
सेवत अ
ग
विवाणि
जयादिवत्ता बहषो मणमा भमंति पाहन्यो उदेति गत्यमेति
अकिरियाता ।
॥
संसारमणोवतगं ॥
गरिमा बढती हाता सलिलण संबंति ण वंति वायर,
यि कवि सोए ।
हा सह जोतिब
रुवाई गो पत्सति होणतेते । संतंपि ते एवमफिरियआता,
किरियं ण पसंति निपण्णा स
केई निमित्त तहिया पति
संघहरं मुषिषं लक्
निमित्तं देहं उप्पादयं च । अट्ठ गमेत बषे अहिंसा,
नोति जाति भागलाई ||
सेवा महिमा
सिचि सं विपडिएति गाणं ।
आहंसु विज्जालिमोनखमेव ॥
मध्यापारियों की समीक्षा
. . . . १२.४-१०
सूत्र २७३
अक्रियावादियों की समीक्षा
२७३. (उत्तरार्द्ध) तथालय वानि कर्मबन्ध को शंका करने वाले अक्रियावादी भविष्य और भूतकाल के क्षनों के साथ वर्तमान काल का कोई सम्बन्ध ( संगति) न होने से क्रिया (और तज्जनित कर्मबन्ध) का निषेध करते हैं।
वे (पूर्वोक्तावादी) अपनी वाणी से स्वीकार किये हुए पदार्थों का निषेध करते हुए मिश्रपक्ष को ( पदार्थ के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों से मिश्रित विरुद्धपक्ष को ) स्वीकार करते हैं । वे स्याद्वादियों के कथन का अनुवाद करने ( दोहराने) में श्री असगर्म होकर अति मूक हो जाते हैं।
वे इस पर मत को द्विपक्ष-प्रतिपक्ष युक्त तथा स्वमत को प्रतिपक्ष रहित बताते हैं एवं स्याद्वादियों के हेतु वचनों को खण्डन करने के लिए के छलयुक्त वचन एवं कर्म (व्यवहार) का प्रयोग करते हैं।
वस्तुतत्व को न समझने वाले वे अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन (शास्त्रवन प्रस्तुत करते हैं। जिन शास्त्रों का आश्रय लेकर बहुत से मनुष्य अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं ।
शुन्यतावादी (यावादी) कहते हैं कि न तो सूर्य उदम होता है, और न ही अस्त होता है तथा चन्द्रमा ( भी ) न को बढ़ता है और न घटता है, एवं नदी आदि के बस बहते नहीं और न ही हवाएं चलती हैं। यह सारा लोक अर्थशून्य (वन्ध्य या मिथ्या ) एवं नियत ( निश्चित अभाव ) रूप है ।
जैसे अन्य मनुष्य किसी ज्योति (दीपक आदि के प्रकाम) के साथ रहने पर भी नेत्रहीन होने से देख नहीं पाता, इसी तरह जिनकी प्रज्ञा ज्ञानावरण के कारण रुकी हुई है, वे बुद्धिहीन अभिमानादी सम्मुख विद्यमान किया को भी नहीं देखते।
जयतु में बहुत से लोग ज्योतिषशास्त्र (संवत्सर), स्वतशास्त्र, लक्षणशास्त्र, निमित्तशास्त्र शरीर पर प्रादुर्भूत-तिल-भष आदि चिन्हों का फल बताने वाला शास्त्र तथा उल्कापात दिग्दाह, आदि का फल बताने वाला शास्त्र, इन अष्टांग (आठ अंगों वाले) निमित्त शास्त्रों को पढ़कर भविष्य की बातों को जान लेते हैं ।
कई निमित्त तो सत्य (तथ्य ) होते हैं और किन्ही- किन्हीं निमित्तवादियों का वह शान विपरीत (अर्थ) होता है। मह देखकर विद्या का अध्ययन न करते हुए अक्रियावादी विद्या से परिमुक्त होने मान देने को ही कल्याणकारक कहते हैं।