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सूत्र २७०
एकान्तक्रियावाद सम्यक् च्यिावाद प्ररूपक
दर्शनाचार
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से पण लोगसिंह पायगा दु.
इस लोक में तीर्थकर आदि नेत्र के समान है, सथा दे मागाऽणुसासंति हितं पयाणे ।
(शासन) नायक (धर्म नेता या प्रधान) है। वे प्रजाओं के लिए तहा तहा सासयमाहू लोए,
हितकर शानादि रूप मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं। सी या पाच ! सपगाया।
इस चतुर्दशरज्ज्वात्मक या पंचास्तिकायरूप लोक में जो-जो वस्तु जिस-जिस प्रकार से द्रव्याथिकनय की दृष्टि से शाश्वत है उसे उसी प्रकार से उन्होंने कही है। अथवा यह जीवनिकायरूप लोक (संसार) जिन-जिन मिथ्यात्व आदि कारणों से जैसे-जैसे शाश्वत (मुदृढ़या सुदीर्घ) होता है, वैसे-वैसे उन्होंने बताया है, अथवा जैसे-जैसे राग-द्वेष आदि या कर्म की मात्रा में अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे सासाराभिवृद्धि होती है, यह उन्होंने कहा है, जिस संसार में (नारफ, तियंन्च, मनुष्य और देव के रूप में)
प्राणिगण निवास करते हैं। जे रवसा वा जमलोड्या वा,
___ जो राक्षस हैं, अथवा यमलोकवासी (नारक) है तथा जो जे वा सुरा गंधल्या य काया ।
चारों निकाय के देव हैं, या जो देव गन्धर्व है, और पृथ्वीकाय आगासगामी व पुरोसिया य,
आदि षड्जीवनिकाय के हैं तथा जो आकाशगामी हैं एवं जो पुणो पुणो विपरियासुर्वेति ॥ पृथ्वी पर रहते हैं, वे सब (अपने किये हुए कर्मों के फलस्वरूप)
बार-बार विविध रूपों में (विभिन्न गतियों से) परिक्षमण करते
रहते हैं। जमा ओहं सलिलं अपारगं,
तीर्थंकरों गणधरों आदि ने जिस संसार सागर को स्वयम्भूजाणाहि णं भवगहणं बुमोक्छ ।
रमण समुद्र के जल की तरह अपार (दुस्तर) कहा है, उस गहन
संसार को दुर्मोक्ष (दुःख से छुटकारा पाया जा सके, ऐसा) जानो। जंसी विसमा विलयंगणाहिं,
जिस संसार में विषयों और अंगनाओं में आसक्त जीव दोनों दुहतो वि लोयं अणुसंघरति ॥
ही प्रकार से (स्थावर और जंगमरूप) अथवा आकाशाधित एवं -सूय. सु. १, अ. १२, गा. ११-१४ पृथ्वी-आथित रूप से अथवा वेषमात्र से प्रवज्याधारी होने और
अविरति के कारण, एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते
रहते हैं। ण कम्मुणा कम्म पति वाला,
____ अज्ञानी जीव (पापयुक्त) कर्म करके अपने कर्मों का क्षय नहीं ___अकम्मुणा उ कम्म जति धीरा । कर सकते। अकर्म के द्वारा (आथयों-कर्म के आगमन को मेधाविणो लोभमरावतीता,
रोक कर, अन्ततः शैलेशी अवस्था में) धीर (महासत्व) साधक संतोसियो गो पकति पाय ।। कर्म का क्षय करते हैं । मेधावी साधक लोभमय (परिग्रह) कार्यों
से अतीत (दूर) होते हैं, वे सन्तोषी होकर पापकर्म नहीं करते। ते तीत - उप्पण्ण - मणागताई,
वे वीतराग पुरुष प्राणिलोक (पंचास्तिकायात्मक वा प्राणिलोगस्स जाणंति तहागताई।
समूह रूप लोक) के भूत, वर्तमान एवं भविष्य (के सुख-दुःखादि तारो अण्णेस अगण्णणेया.
वृत्तान्तों) को यथार्थ रूप में जानते हैं। वे दूसरे जीवों के नेता बुद्धा हु ते अंतकडा भवति ।। हैं, परन्तु उनका कोई नेता नहीं है । वे ज्ञानी पुरुष (स्वयंबुद्ध,
तीर्थंकर, गणधर आदि) संसार (जन्म-मरण) का अन्त कर
देते हैं। तेणेव कुरवंति ण कारति,
वे (प्रत्यक्षशानी या परोक्षज्ञानी तत्वज्ञ पुरुप) प्राणियों के भूतामिसंकाए [छमाणा।
घात की आशंका (डर) से पाप-कर्म से घृणा (अरुचि) करते हुए स्वयं हिंसादि पापकर्म नहीं करते, न ही दूसरे से पाप (हिंसादि) कर्म कराते हैं।
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