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________________ १६८] घरगानुयोग एकान्त कियावादी सूत्र २६८-२७० से एवं वादी एवं पन्ने एवं बिट्ठि-छंव-रागभिनिव? यावि इस प्रकार का आस्तिकवादी, आस्तिक प्रश, और आस्तिक भवा। दृष्टि (कदाचित् चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से) स्वच्छन्द से भवह महिन्छो जाव-उत्सरगामिणेरहए सुमकपक्खिए, रागाभिनिविष्ट महान् इच्छाओं वाला भी होता है, और वैमी आगमेस्तामं सुलमयोहिए यावि भवइ । दशा में यदि नरकाण का बन्ध कर लेता है तो वह उत्तर दिशावर्ता नरकों में उत्पन्न होता है, वह शुक्लपाक्षिक होता है और आगामीकाल में सुलभबोधि होता है,-यावत्-सुगतियों को प्राप्त करता हुआ अन्त में मोक्षगामी होता है। सेतं किरिया-धानी। --दसा. द. ६,.१५-१६ यह क्रियावादी है। एगत किरियावाई एकान्त क्रियावादी२६६. महावरं पुरषखायं किरियावारिसणं । २६६. दूसरा पूर्वोक्तः (एकान्त) क्रियावादिवों का दर्शन है। कर्म कम्मचितायणढाणं संसारपरिषड्ढणं ॥ (कर्म-बन्धन) की चिन्ता से रहित (उन एकान्त क्रियावादियों का दर्शन) (जन्म-मरण रूप) संसार की या दुःख समूह की वृद्धि करने वाला है। जाणं कारण गाउट्टी अनुहो । हिंसती । जो व्यक्ति जानता हुआ मन से हिंसा करता है, किन्तु शरीर पुट्ठो संवेदेति पर अवियत्तं खु सावजं ॥ से छेदन भेदनादि क्रिया रूप हिंसा नहीं करता एवं जो अनजान में (शरीर से) हिंसा कर देता है, वह केवल स्पर्शमात्र से उसका (कर्मबन्ध का) फल भोगता है। वस्तुत: वह सावध (पाप) कर्म अध्यक्त-अस्पष्ट-अप्रकट होता है। संतिमे तओ आरणा अहि कीरति पावगं । ये तीन (कमों के) आदान (ग्रहण--बन्ध के कारण) हैं, जिनसे अमिकम्माय पेसाय मणमा अजाणिया ॥ पाप (पापकर्मबन्ध) किया जाता है—(१) किसी प्राणी को मारने के लिए स्वयं अभिक्रम-आक्रमण करना. (२) प्राणि वध के लिए नौकर आदि को भेजना या प्रेरित करना, और (३) मन से अनुज्ञा-अनुमोदना देना। एए उ सो आयणा जेहि कोरति पावगं । ये ही तीन आदान-कर्म के कारण हैं, जिनसे पापकर्म एवं भावविसोहिए णिष्वाणमभिगच्छती ।। किया जाता है । वहाँ (पाप कर्म से) भावों की विशुद्धि होने से कर्मबन्ध नहीं, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुतं पि हा समारंभ माहारट्टमसंजए। (किसी दुष्काल आदि विपत्ति के समय) कोई असंयत गृहस्थ भंजमामो य मेधावी काभुगा नोवलिपति ।। पिता आहार के लिए पुत्र को भी मारकर भोजन करे तो वह कर्मबन्ध नहीं करता । तथा मेधावी साधु भी निस्पृहभाव से उस आहार मांस का सेवन करता हुआ कर्म से लिप्त नहीं होता। मणसा पउस्सति चित्तं तेलिन विग्जती। जो लोग मन से (किसी प्राणी पर) Aष करते हैं, उनका अगवाज अतह तेसि ण ते संचारिणी ।। चित्त विशुद्धियुक्त नहीं है तथा उनके (उस) कृत्य को निरबद्य -सूय. सु. १, भ. १. उ. २, मा. २४-२६ (निष्पाप) कहना अतथ्य-मिथ्या है तथा वे लोग संवर के साथ विचरण करने वाले नहीं है। एगंत किरियावायरस सम्म किरियावायस परूवगा- एकान्त क्रियावाद और सम्यक् क्रियावाद प्ररूपक२७०. ते एवमक्खंति समेच लोभ, २७०. वे श्रमण (शाक्यभिक्षु) और माहन (ब्राह्मण) अपने-अपने तहा तहा समणा माहणा य । अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर उस-उस क्रिया के अनुसयक गण्णकडं च दुक्खे, सार फल प्राप्त होना बताते हैं। आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥ तथा (वे यह भी कहते हैं कि) दुःख स्वयंकृत (अपना ही किया हुआ) होता है, अन्यकृत नहीं। परन्तु तीर्थंकरों ने विद्या (ज्ञान) और चरण (चारित्र-क्रिया) से मोक्ष कहा हैं।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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