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________________ ७२] घरगामुयोग चार प्रकार की विनय-प्रतिपसि सूत्र ११० बिणयास मूलोयमा विनय को मूल की उपमा१०६, मूलामो बंधप्पभवो मस्स, १०६. वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् खंधाओ पस्छा समुर्वेति साहा । शाखाएँ आती हैं, और शालाओं में से प्रशाखाएं निकलती है। साहप्पसाहा विहंति पत्ता, उसके पश्चात् पत्र, पुष्य, फल और रस होता है । तओ से पुष्पं फलं रसोय ॥ एवं धम्मस्स विणओ मूलं, इसी प्रकार धर्म का मूल है 'विनय' (आचार) और उसका परमो से मोक्यो । परम (अन्तिम) फल है मोक्ष । विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, जेण किमि मुर जि. लावलीय श्रुत और समस्त इष्ट तत्वों को प्राप्त होता है। निस्सेसं चाभिगच्छई ।। -दस. अ. ६, उ.२, गा.१२ आयरियल्स विणय-पडिवत्ती आचार्य की विनय-प्रतिपत्ति११०. आयरिओ अंतेवासी इमाए चउबिहाए विणण-पजिवतीए ११०. आचार्य अपने शिष्यों को यह चार प्रकार की विनयविणता भवद निरणितं गच्छा तं जहा प्रतिपत्ति सिखाकर अपने ऋण से उऋण हो जाता है । जैसे१. आयार-विणएणं, २. सुयं-विणएणं, आचार विनय, श्रुतबिनय, ३. विमलेवणा-विणएणं, ४. बोस-निग्घायणा-विणएणं । विक्षेपणाविनय और दोष-नितिनाविनय । प०-से कितं आयार-विणए? प्र.-भगवन् ! वह आचारविनय क्या है। उ.--आयार-विणए चविहे पणते । तं जहा . उ.--आचारविनय चार प्रकार का कहा गया हैं। जैसे१. संयम-सामायारी यावि भवइ, १. संयमसमाचारी-संयम के भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराके आचरण कराना। २. तव-सामाधारी यावि भवइ, २. तपःगमाचारी-तप के भेद-प्रभेदों का शान कराके आचरण कराना। ३. गण-सामायारी यादि भवई, ३. गणसमाचारी-साधु-संघ की सारण-वारणादि से रक्षा करना, रोगी दुर्बल साधुओं की योचित व्यवस्था करना, अन्य गण के साथ यथायोग्य व्यवहार करना और कराना। ४. एकल्ल-विहार-सामायारी भाषि मवह । १. एकाकी विहार समाचारी-किस समय किस अवस्था में अकेने विहार करना चाहिए, इस बात का शान कराना । से तं आयार-विणए। यह आचारविनय है। प.-से कि तं मुय-विणए ? प्र-भगवन् ! श्रुतविनय क्या है ? ज०-सुप-विणए चविहे पणतं । तं जहा उ.- श्रुतविनय चार प्रकार का कहा गया है । जैसे१. सुत्तं वाएइ, १. सूत्रवाचना-मूल सूत्रों का पड़ाना । २. अस्थं वाएइ, २. अर्थवाचना-सूत्रों के अर्थ का पढ़ाना। ३. हियं वाएइ, ३. हितवाचना-शिष्य के हित का उपदेश देना । ४. निस्सेसे पाएइ, ४. निःशेषवाचना-प्रमाण नय, निक्षेप, संहिता, पदच्छेद, पदार्थ, पद-विग्रह, चालना (शंका) प्रसिद्धि (समाधान) आदि के द्वारा सूवार्च का यथाविधि समग्र अध्यापन करना-कराना । से तं सुप-विणए। यह श्रुतबिनय है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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