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सूत्र १०७-१०८
अविनय का फल
जानाचार
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कुम्मोग्य अल्लोणपतीगगुतो', परक्कमेज्जा तव संजमम्मि ॥
कूर्म (कछुआ) की तरह आलीनगुप्त और प्रलीनगुप्त हो तप और संयम में पराक्रम करे ।
-दस, अ. ८, गा. ४०
अधिणयफलं
अविनय का फल१०. थंभा व कोहा व मयप्पमाया,
१०८. जो मुनि गर्ने, शोध, माया या प्रमादव गुरु के समीप गुरुस्सगासे विणयं न सिपखे।
विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके सो घेव उ तस्स अभूइभावो',
विनाश के लिए होती है, जैसे--कीचक (बाँस) का फल उसके कसं न कीयस्स यहाय होई॥
वध के लिए होता है। -~-दस. अ. ६, उ. १, गा. १
(शेष टिष्यण पिछले पृष्ठ का) न करति मणेण आहारमाणविप्पजदगो उ णियमेण । सोइदिय गंवुडो पुडविकायारम्भ खंतिजओ ।। इय मदवाइजोगा पुढविकाए भवति दस भया । आउक्कावादीसु वि, इय एते पिरियं तु सयं ।। सोईदिएण एवं, रोरोहि वि जे इमं तओ पंचो। आहारसण्ण जोगा, इय सेमाहि सहस्सदुर्ग ।। एयं मागेण वशमाविएर एयति छस छसहस्माई। ग करइ सेरोहिं पिय एए सम्वे वि अट्ठारा ।। अष्टादश सहस्रशीलांग रघ का प्राचीन चित्र--
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सीलांम रय१ गाथा:-जे करतिमामा निजी मारी ।
पुदी कामसती जुमा है मुख दे। लिखा:-रखार से प्रदामना स्वर्ग नामी पुज्य जनजी
काम तस्मरिष्य मुनि शीरधारी रखनी बार १९६सनिराशि पत्रानुसार
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१ गुप्त' शब्द आलीन और प्रलीन दोनों से सम्बन्धित है, कूर्म के समान स्वशरीर में अंगोपांगों का संगोपन करके जो किसी प्रकार
की कायचेष्टा नहीं करता है वह आलीनगुप्त कहलाता है। कारण उपस्थित होने पर यवनापूर्वक जो शारीरिक प्रवृत्ति करता है, वह प्रलीन गुप्त कहलाता है। धमण कम के समान अपने अंगोपांगों को गुप्त रखे और आवश्यकता होने पर विवेकपूर्वक
प्रवृत्ति करे। २ विनय दो प्रकार का है—(१) ग्रहण-विनय, (२) आसेवन-विनय । ज्ञानात्मक विनय को ग्रहण विनय और कियात्मक विनय को भासेवन विनय कहते हैं।
-जीतकल्प चूणि ३ भूति का अर्थ है ऐश्वर्य, उसका अभाव अभूति भाव अर्थात् विनय । ४ दामु से शब्द करते हुए बांस को कीचक कहते हैं । फल उगने पर यह बांस सूख जाता है।