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________________ सूत्र ६६८ सयणा न सरणदाया ६९९. माया पिया बसा भाया, भरजा पुसा य ओरसा । नातं ते मम ताणा०, सुवन्तरस सम्पुणा || सहाए एमट्ठ धियं हि सिह पागे 1 स नवय पुणे से से पुणे इति से भी महता परिता से पसे । स्वजन शरणदाता नहीं होते त्वं दिए सोए पले । यंति । - - उत्त. अ. ६, गा. ३-४ तं जहा --- माता मे पिता मे, माया मे, मगिणी मे, मज्जा मे, पुता में, घूया मे सुहा में, सहि सण-गंध-संयुता में, विविलोरण परिय-पोषणायणं मे अहो य राओ व परितप्यमाणे कालाकालसमुट्ठायी संजोगट्टी अट्ठालोमी बालुप सहकारे विनिविचित्ते एत्थ सत्ये पुणो पुणो । आता तंज- सोतपष्णपरिहायमाणे, पण्णानहं परिहायमाणेह, घाण पण्णा परिहायमाणेहि पाहि परिहारमाह फसवण्णा हि परिश्यमाह । वयं सहाए तभी से एमया मूढभावं जन केहि संयति सेवा पिरिति सो वा ते पिय पच्छा परिवज्जा । चारित्राचार [४५३ स्वजन शरणदाता नहीं होते ६६. जब मैं अपने द्वारा किये गये कर्मों से छेदा जाता हूँ, तब माता-पिता, पुत्रवधू भाई पत्नी और बोरस पुत्र के सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते । 2 सम्यक् दर्शन वाला पुरुष अपनी बुद्धि से यह अर्थ देखें, गुढि और स्नेह का न करे, पूर्व परिचय की अभियान करे। जो गुण (इन्द्रिय-विषय) है वह (कषावरूप संसार का ) मूल स्थान है जो मूलस्थान है, वह गुण है। इस प्रकार आगे कहा जाने वाला विषयार्थी पुरुष महान् परिताप से प्रगत होकर जीवन बिताता है। वह इस प्रकार मानता है मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई हैं, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है मेरी है, मेरी पुत्र है, मेरा जन-सी है मेरे विविध प्रचुर उपकरण (अश्व, रथ, आसन आदि) परिवर्तन ( लेने देने की सामग्री) भोजन तथा वस्त्र है। इस प्रकार मेरेपन ( ममत्व ) में आसक्त हुआ पुरुष; अमस होकर उनके साथ निवास करता है। वह प्रमत्त तथा आसक्त पुरुष रात-दिन परितप्त चिन्तित एवं तृष्णा से आकुल रहता है। काल या अकाल में प्रयत्नशील रहता है। यह संयोग का अर्थी होकर नर्म का लोभी बनकर सूट-पाट करने वाला चोराहा जाता है। महताकारी दुःसाहसी और विना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है। विविध प्रकार की आशाओं में उसका चित्त फंसा रहता है। वह बार-बार शस्त्र प्रयोग करता है। संहारक आक्रामक बन जाता है । इस संसार में कुछ एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है । जैसे- श्रोत्र प्रज्ञान के परिहीत ( सर्वथा दुर्बल) हो जाने पर, शु-ज्ञान के परिहीन होने पर अज्ञान के परिहीन होने पर रख-प्रधान के परिहीन होने पर प-ज्ञान के परिहीन होने पर ( वह अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है) । वय - अवस्था यौवन को तेजी से जाते. हुए देखकर वह चिन्ताग्रस्त हो जाता है और फिर एकदा ( बुढ़ापा आने पर ) मूढभाव को प्राप्त हो जाता है । वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ( पत्नी पुत्र आदि ) कभी उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं। बाद में वह भी स्वजनों की निन्दा करने लगता है ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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