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________________ ४५२] चरणानुयोग आतुर व्यक्तियों को परिग्रह असह्य होते हैं सूत्र ६९६-६६८ ण एस्थ तबो वा चमो वा णियमो वा विस्तति । परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम-इन्द्रिय-निग्रह होता है और न नियम होता है। संपुग्ण बाले जीविकामे लालप्यमाणे मूढे विपरिषासमुदेति । बह अज्ञानी, ऐपवर्ग पूर्ण जीवन जीने की कामना करता रहता - आ. सु. १. अ. २, उ, ३, ४, ७७ (क) है। बार-बार सुख की प्राप्ति की अभिलाषा करता रहता है। किन्तु सुरहों की अमाप्ति ब कामना की व्यया से पीडित हुश बह मूह विपर्यास (सुख के बदले दुःख) को ही प्राप्त होता है। मातुराणा परीसहा दुरहियासा आतुर व्यक्तियों को परीषह असह्य होते हैं--- ६९७. आतुरं लोगमायाए चइता पुश्वसंजोग हेचा उवसमं वसित्ता ६६७, (काम-राग आदि से) आतुर लोक को भलीभांति समझकर बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणित घाम अहा तहा अहेगे जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य तमचाइ कुसीला। में वास करके वसु (संयमी) अथवा अनुवसु (श्रावक) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते।। वत्यं परिग्यहं कंबल पायपुंछणं विउसिज्ज अणुपुत्रेण अण- वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद-प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोचियासेमाणा परीसहे दुरहियासए। तर आने वाले दुःसह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि-धर्म का त्याग कर देते हैं)। कामे ममायमाणस दवाणि या मुहत्ते वा अपरिमाणाए भेदे। विविध काम-भोगों को अपनाकर (उन पर) गाढ़ ममत्व रखने पाले ज्यक्ति का तत्काल अन्तमुहर्त में या अपरिमित समय में शरीर छूट सकता है। एवं से अंतराइएहि कामेहिं आकेलिएहि अवितिण्णा चेते। इस प्रकार वे अनेक विघ्नों और द्वन्द्रों या अपूर्णताओं से -आ. सु. १, अ. ६, उ. २, सु. १५३ युक्त काम-भोगों से अतृप्त ही रहते हैं। (अथवा उनका पार नहीं पा सकते, बीच में ही समाप्त हो जाते हैं।) कसायकलुसिया कसायं बढ़ति कषाय कलुषित भाव को बढ़ाते हैं१६८. कासंकसे खलु अयं पुरिसे, महमायी, कोण मूळे, ६६६. काम-भोग में आसक्त वह पुरुष सोचता है- "मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूंगा" (इस प्रकार की आकुलता के कारण) वह दूसरों को ठगता है, माया कपट रचता है, और फिर अपने रचे माया जाल में फंसकर मूढ़ बन जाता है। पुणो तं करेति लोभ, वेरं वति अपणो । वह मूढ़भाव से ग्रस्त फिर लोभ करता है (काम-भोग प्राप्त करने को ललचाता है) और (माया एवं लोभ युक्त आचरण के द्वारा) प्राणियों के साथ अपना वर बढ़ाता है । अमिणं परिकहिज्जह हमस्स चेव पडिग्रहणताए । ____ जी मैं यह कहता हूँ (कि वह कामी पुरुष माया तथा लोभ का आचरण कर अपना वर बढ़ाता है) वह इस शरीर को पुष्ट करने के लिए ही ऐसा करता है। अमराइयइ महासबढी । अमेतं तु पहाए । अपरिणाए वह काम-भोग में महान् श्रद्धा (भासक्ति) रखता हुआ अपने कवति। को अमर की भांति समझता है। तू देख, आर्त-पीडित तथा दुःखी -आ. सु. १, अ. २, उ. ५, सु. १३ है। परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला ऋन्दन करता है (रोता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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